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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९|| जलाई-सितम्बर २००४
कर्म-साहित्य में तीर्थङ्कर
डॉ. धर्मचन्द जैन*
जिस जीव के नामकर्म की तीर्थङ्कर नामक प्रकृति का उदय रहता है, उसे तीर्थङ्कर कहा जाता है। तीर्थङ्कर का यह लक्षण कर्म-सिद्धान्त के अनुसार है। तीर्थङ्कर की महिमा निराली है। उनके गुणवर्णन में शक्रस्तव जैसे अनेक स्तुति-पाठ एवं स्तोत्र उपलब्ध हैं। आगम, पुराण, महाकाव्य, इतिहास, स्तोत्र-साहित्य आदि में तीर्थङ्करों के स्वरूप एवं महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। तीर्थङ्कर केवलज्ञानी होते हैं, किन्तु सामान्य केवली एवं तीर्थङ्करों में महद् अन्तर होता है। तीर्थङ्कर अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त होते हैं, किन्तु केवली नहीं। तीर्थङ्कर नामकर्म के विपाकोदय के पूर्व ही गर्भस्थ बालक की माता द्वारा १४ स्वप्न देखना, ६४ इन्द्रों द्वारा पूजा-भक्ति करना आदि अनेक कारणों से तीर्थङ्कर की महिमा विशेष है। तीर्थङ्कर १००८ लक्षणों एवं ३४ अतिशयों से सम्पन्न होते हैं। उनकी वाणी में ३५ विशिष्ट गुण माने गए हैं, जबकि सामान्य केवली में इनका होना आवश्यक नहीं है। तीर्थङ्कर लोकहित की भावना से समस्त जीवों की रक्षा-दया के लिए प्रवचन फरमाते हैं। तीर्थङ्कर की मुख्य विशेषता है कि वे साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ के प्रणेता होते हैं। भगवतीसूत्र में अरिहन्त को तीर्थङ्कर कहा गया है। तीर्थङ्कर के पंच कल्याणक मान्य हैं', सामान्य केवली के नहीं। तीर्थङ्कर प्रकृति का इतना प्रभाव होता है कि इसके उदय से पूर्व ही तीर्थङ्कर इन्द्रों के पूजनीय बन जाते हैं।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय एवं मोहनीय इन चार घाती कर्मों का क्षय करने की दृष्टि से तीर्थङ्कर एवं सामान्य केवली में कोई भेद नहीं होता, किन्तु दोनों के अतिशय में बड़ा भेद है और इसका कारण तीर्थङ्कर नाम प्रकृति है। दिगम्बर ग्रन्थ धवला टीका में कहा गया है - 'जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि तं तित्थयरं णाम।६ अर्थात् जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है, वह तीर्थङ्कर नाम कर्म है। सर्वार्थसिद्धि में इसे आर्हन्त्य का कारण बताया गया है। तीर्थ का एक अर्थ द्वादशांग, गणिपिटक भी किया जाता है, क्योंकि उसके आलम्बन से संसार-समुद्र को तैरा जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य में उल्लेख है कि तीर्थङ्कर भी तीर्थ को नमस्कार करते हैं - नमस्तीर्थाय। इससे तीर्थ का महत्त्व उद्घाटित होता है। तीर्थ के महत्त्व से तीर्थङ्कर का महत्त्व स्वत: बढ़ता है। तीर्थ के अन्तर्गत श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्वर्णों की गणना होती है।१० * एसोशिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
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