Book Title: Sramana 2000 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ आपने मधुरता से कहा “ भाई नाराज न हो, मैं स्याद्वाद से आपका अभिमत सिद्ध कर सकता हूँ।।" जब अनुपम युक्ति निचय से आपने यह भी सिद्ध कर दिया तो वादी आचार्यवर्य की विद्वत्ता और उदारचरितता को देखकर खुश हो गया। वादी ने कहा कि मैं अपने आपको पराभव से अपमानित हुआ मानता हूँ। लेकिन मेरे विजेता में यदि अपमानित करने की लेशमात्र इच्छा नहीं है तो मुझे भी खेद करने की लेश मात्र भी जरुरत नहीं है। परिणाम यह आया कि प्रतिवादी के हृदय की भावना भी आपकी उदारता के सामने झुक गयी। वह भी पराभूत हो गयी। इसी तरह से आपने वाद भूमि को भी पवित्र कर दिया। वादी को जो मन:सन्तुलन रखना पड़ता है वह कठिनता से सिद्ध होता है। वह आपके लिये सहज था। वाद गीर्वाणगिरा में ही होता था। महोपाध्याय यशोविजय महाराज के बाद यश:पूर्ण वाद विजय की यह सर्वप्रथम ऐतिहासिक घटना है। कवित्त : जीवन के प्रारंभ से आपको कविता सहज थी। कविता का आर्विभाव सहज संवेदनात्मक अनुभूति से होता है। आपका चित्त प्रभु भक्ति में इतना प्रसन्न रहता था कि आप जब भगवान् के दर्शन करते तो लोग दर्शन किस तरह करना-यह सीखने के लिये आते थे। बालक जैसे सरल भाव से जब आप भगवान् के मंदिर में उपस्थित होते थे, तब हजारों को भगवान् के परम भक्त को देखने का शुभ अवसर प्राप्त होता था। प्रायः आपकी कविता में यही भक्त-सहज हृदय की गहरी अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं। आपने उर्दू-संस्कृत-गुजराती एवं हिन्दी भाषा में अनके कृतियाँ निबद्ध की हैं। आपका ‘स्तवन संग्रह' ज्ञाति-जाति और संप्रदाय का भेद भूलकर घरघर में आदर पाता है। महातीर्थाधिराज शत्रुजय के यात्री नहीं अपितु वहाँ के शचक गण के मुख से भी आपका स्तवन सना जाता है। आपके काव्य में अलंकार वैभव और शाब्दिक सरलता के साथ अर्थ गांभीर्य भी था। इस कारण से आपकी कृतियाँ बाल जीवों के साथ विद्वत् जगत् के दिलको भी आकृष्ट कर लेती थीं। आपके काव्य गुंफन में आपकी 'आधुनिक प्राचीनता' अर्वाचीन युवकों को प्राचीनता का मूल्यांकन समझाने में सफल बन जाती थी। “वैराग्य रस मंजरी" नामक संस्कृत पद्यग्रंथ केवल १५ दिन में आपने बनाया था और 'स्तवन' । 'सज्झाय' आदि तो किसीके भी मांगने पर फौरन ही आप बना देते थे। आपकी कई ‘सज्झाय माला' और 'स्तव माला' प्रकाशित हो चुकी हैं। "नूतन स्तवनावली' में सब काव्य संगृहीत किये गये हैं। इस से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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