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लाटी संहिता
एवं मांसाशनाभावोऽवश्यं संक्लेशितो भवेत् । तस्मादसातबन्धः स्यात्ततो भ्रान्तिस्ततोऽसुखम् ॥६४ एतदुक्तं परिज्ञाय श्रद्धाय च मुहुर्मुहुः । ततो विरमणं कार्यं श्रावकैर्धर्मवेदिभिः ॥६५ मद्यं त्यक्तवतस्तस्य वम्यतीचारवर्जनम् । यत्त्यागेन भवेच्छुद्धः श्रावको जात्यस्वर्णवत् ॥६६
कज्ञानयुक्तस्य मानान्मद्यमुच्यते । ज्ञानाद्यावृत्तिहेतुत्वात्स्यात्तदवद्यकारणम् ॥६७ भङ्गाहिफेनधत्तू रखस्खसादिफलं च यत् । माद्यताहेतुरन्यद्वा सर्वं मद्यवदीरितम् ॥६८ एवमित्यादि यद्वस्तु सुरेव मदकारकम् । तन्निखिलं त्यजेद्धीमान् श्रेयसे ह्यात्मनो गृही ॥६९ दोषत्वं प्राग्मतिभ्रंशस्ततो मिथ्यावबोधनम् । रागादयस्ततः कर्म ततो जन्मेह क्लेशता ॥७० दिग्मात्रमत्र व्याख्यातं तावन्मात्रैकहेतुतः । व्याख्यास्यामः पुरो व्यासात्तद्व्रतावसरे वयम् ॥७१
है और बाह्य पदार्थ गोण कारण है। तथा कहीं-कहीं पर केवल अन्तरंग कारणसे ही कार्यकी सिद्धि हो जाती है । अतएव आत्मा जो आत्मामें लोन होता है उसका कारण केवल अन्तरंग कारण होता है । उसके लिए बाह्य कारणकी आवश्यकता नहीं पड़ती ||३||
इस प्रकार मांस भक्षण करनेसे इस जीवके परिणाम संक्लेश रूप अवश्य होते हैं तथा संक्लेश परिणाम होनेसे असाता वेदनीयका बन्ध होता है । असाता वेदनीयका बन्ध होनेसे संसारमें परिभ्रमण होता है और संसार में परिभ्रमण होनेसे दुःख उत्पन्न होता है । इस प्रकार मांस भक्षण करना अनन्त कालतक अनन्त दुःखों का कारण है || ६४ || इस प्रकार ऊपर जो कुछ मांस भक्षण के दोष बतलाये हैं उनको जानकर और उनपर बार बार श्रद्धान कर धर्मका स्वरूप जाननेवाले श्रावकोंको उन अतिचारोंका त्याग अवश्य कर देना चाहिए || ६५ || अब आगे जिसने मद्यका त्याग कर दिया उसके लिए उसके अतिचार छोड़नेका उपदेश देते हैं । जिस प्रकार कीट-कालिमाके हटा देने से सुवर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार मद्यके अतिचारोंका त्याग कर देनेसे श्रावक अत्यन्त शुद्ध हो जाता है || ६६ || जिन अल्पज्ञानी जीवोंके इन्द्रियजन्य ज्ञान है वे जीव मद्यपान करने से उन्मत्त रूप हो जाते हैं अर्थात् मद्यपान (नशीली चीजों का खाना पीना) इन्द्रियोंको धारण करनेवाले संसारी जोवोंको उन्मत्तताका कारण है इसीलिए वह मद्य कहलाता है तथा मद्यपान करनेसे ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि अशुभ कर्मोका बन्ध होता है इसलिए वह पापका कारण है ||६७|| भाँग, अहिफेन (अफीम), धतूरा, खसखसके दाने आदि (चर्स, गाँजा) जो जो पदार्थ नशा उत्पन्न करनेवाले हैं वे सब मद्यके समान ही कहे जाते हैं ||६८ || ये सब पदार्थ तथा इनके समान और ऐसे पदार्थ जो कि मद्य के समान मद्य या नशा उत्पन्न करनेवाले हैं वे सब पदार्थ अपनी आत्माका कल्याण करने के लिए बुद्धिमान् गृहस्थको छोड़ देना चाहिए ||६९ || इस मद्य सेवन करनेसे तथा भांग, धतूरा, खसखस आदि मद्य त्यागके अतिचार रूप नशीले पदार्थोंके सेवन करने से पहले तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, फिर मिथ्या ज्ञान होता है, माता बहिन आदिको भी स्त्री समझने लगता है तथा इस प्रकारका मिथ्या ज्ञान होनेसे फिर रागादिक उत्पन्न होते हैं, रागादिक उत्पन्न होनेसे फिर व्यभिचार सेवन, अभक्ष्य भक्षण या अन्य अन्याय रूप क्रियायें उत्पन्न होने लगती हैं तथा व्यभिचार सेवन या अभक्ष्य भक्षण करनेसे इस संसारका जन्म-मरण रूप परिभ्रमण बढ़ता है और जन्म-मरण रूप परिभ्रमण बढ़नेसे इस जीवको सदा संक्लेश या दुःख उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए नशीली सब चीजोंका त्याग कर देना ही इस जीवके लिए कल्याणकारी और सुख देनेवाला है || ७० | इस प्रकार जो जो पदार्थं केवल नशा उत्पन्न करनेवाले हैं ऐसे भांग,
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