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बावकाचार-संग्रह पक्तिकरसादीनां भमणं वक्ष्यमाणतः । कालापर्वाक ततस्तूवध्वं न भयं तवभक्यवत् ॥५७ इत्येवं पलदोषस्य विग्मा लक्षाणं स्मृतम् । फलितं भवाणावस्य वक्ष्यामि शृणुताषुना ॥५८ सिहान्ते सिखमेवैतत् सर्वतः सर्वदेहिनाम् । मांसांशस्याशनादेव भावः संक्लेशितो भवेत् ॥५९ म कदाचित मृदुत्वं स्याउद्योग व्रतधारणे। द्रव्यतो कर्मरूपस्य तच्छक्तेरनतिक्रमात् ॥६० बनाबनिधना नूनमचिन्त्या वस्तुशक्तयः । न प्रताः कुतकैर्यत् स्वभावोऽतकंगोचरः ।।६१ अयस्कान्तोपलाकृष्टसूचीवत्तद्वयोः पृथक् । अस्ति शक्तिविभावाल्या मियो बन्धादिकारिणी ॥६२ नवाच्यमकिञ्चित्करं वस्तु बाह्यमकारणम् । षत्तराविविकाराणामिन्द्रियार्थेषु वर्शनात ॥६३
यद्वस्तुबाह्यं गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः ।
अध्यात्मवृत्तस्य तबङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥३ नहीं खाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पदार्थोंमें अनेक त्रस जीवोंकी और निगोद राशिकी उत्पत्ति अवश्य हो जाती है ॥५६॥ दूध, दही, छाछ आदि रसोंका भक्षण उनके कहे हुए नियमित समयके पहले-पहले कर लेना चाहिए, अर्थात् जितनी उनकी मर्यादा कही है वहीं तक उनको खाना चाहिये । उस मर्यादाके बाहर अभक्ष्य पदार्थोके समान उसे कभी नहीं खाना चाहिये । अर्थात् दूध, दही आदिकी जितनी मर्यादा है उसके बीत जानेपर वे अभक्ष्य हो जाते हैं फिर उनका भक्षण कभी नहीं करना चाहिए ॥५७।। इस प्रकार मांसके दोषोंका थोड़ा सा वर्णन किया है। अब आगे मांस खानेसे क्या फल मिलता है उसको बतलाते हैं सो सुनो ॥५८॥ सिद्धान्तशास्त्रोंमें यह बात सिद्ध है कि मांसका एक अंशमात्र भी भक्षण करनेसे समस्त जीवोंके भाव सब ओरसे संक्लेशरूप हो जाते हैं ॥५९॥ क्रूर और संक्लेश परिणाम होनेके कारण उन परिणामोंमें फिर व्रत धारण करने योग्य कोमलता कभी नहीं रह सकती तथा उन परिणामोंमें तोव कमरूप शक्तिके बननेका उल्लंघन कभी नहीं होता है ॥६०॥ कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि मांसमें ऐसी क्या बात है जो उसके भक्षण करनेसे परिणामोंमें सदा संक्लेशता बनी रहती है ? सो इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक पदार्थकी शक्तियां अचिन्त्य हैं और वे अनादिकालसे चली आ रही हैं और अनन्तकालतक बराबर बनी रहेंगी। इसमें किसी भी कुतर्कीको किसी भी प्रकारका कुतर्क नहीं करना चाहिए क्योंकि जो जिसका स्वभाव है उसमें किसीका तर्क चल नहीं सकता ॥६१।। अथवा जिस प्रकार चुम्बक पत्थर और सुई दोनों अलग अलग पदार्थ हैं परन्तु दोनोंके मिलनेसे एक ऐसी विभावरूप शक्ति उत्पन्न हो जातो है जिससे कि चुम्बक सुईको अपनी ओर खींच लेता है अथवा सुई चुम्बककी ओर खिचकर चली जाती है। उसी प्रकार जीव अलग पदार्थ है और मांस अलग पदार्य है परन्तु जीवमें एक वैभाविक नामकी ऐसी शक्ति है जो उस जीवके साथ मांसका संयोग होनेपर (मांस भक्षण कर लेनेपर) तीव्र बन्धका कारण होती है ॥६२।। कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि शुभ अशुभ बन्ध करनेवाले परिणाम जीवके ही होते हैं उसमें बाह्य वस्तु कोई कारण नहीं है बाह्य पदार्थ तो अकिचित्कर हैं वे कुछ नहीं कर सकते, परन्तु यह शंका करना ठीक नहीं है। क्योंकि धतूरा आदि खा लेनेसे जीवकी इन्द्रियोंमें विकार हो ही जाता है ॥६३॥
कहा भी है-गुण दोषोंके उत्पन्न होने में जो बाह्य पदार्थ निमित्त कारण पड़ते हैं वे आभ्यन्तर मूल कारणके होनेसे ही निमित्त कारण होते हैं अर्थात् आभ्यन्तर कारण मुख्य कारण
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