Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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प्रथम सर्ग:
दुःसहेन प्रतापेन सहजेन
समन्वितः । शारवार्क इव 'श्रीमान्योऽभूत्पचाभिवृद्धये ॥४६॥ निसर्गसरलैः - कान्तैः प्रतीकनैव केवलम् । गुणैरपि गुणज्ञेन येनातिशयितः पिता ॥४७॥ द्राक् कुशाग्रीया बुद्धचा कीर्त्या यस्येन्दुशुभूया । "इयत्ता राजविद्यानां दिशां च परिचिच्छिदे ।। ४८ ।। सहजैव दया यस्य नीतिमार्गविदोऽप्यभूत् । स्वभ्यस्तेनापि शास्त्रेण न स्वभावोऽपनीयते ॥४६॥ सद्वृत्तमखिलं यस्मिन्नेकीभूय महात्मनि । प्रास्तावकाशमन्येषु क्षुद्रेष्वप्राप्य वाषितुम् ॥५०॥ एक एव महासत्वो गुणानां धाम योऽभवत् । निर्मलानामनन्तानां रहनानामिव सागरः ॥ ५१ ॥ यद्भुजो भूतदुर्वार प्रतापानलतापितम् । प्रपि चित्र 'निरुष्मासीद्विपक्षीभूतराजकम् ॥ ५२ ॥ । लक्ष्मीकरेणुकालानस्तम्भो यस्य न वक्षिरणः । भुजोऽराजत् क्षितेरुच्चैरक्षाशालायितायतिः ॥ ५३ ॥ नेकपपतिर्भूत्वा मदलीलाविवजितः । रराज राजसिंहो यः क्षान्त्यालंकृतविक्रमः ||५४ || विस्तृत करता है उसी प्रकार वह अपराजित भी कुमुदायति - पृथिवी के हर्ष की वृद्धि को विस्तृत करने वाला था ।। ४५ ।। दुःसह तथा सहज प्रताप से सहित जो अपराजित शरद ऋतु के सूर्य के समान शोभायमान होता हुआ पद्माभिवृद्धि - लक्ष्मी की वृद्धि के लिये ( पक्षमें कमलों की वृद्धि के लिये ) था ||४६ || जिस गुणज्ञ अपराजित ने, न केवल स्वभाव से सरल और सुन्दर अवयवों के द्वारा पिता को प्रतिकान्त किया था किन्तु गुणों के द्वारा भी अतिक्रान्त किया था । भावार्थ - अपराजित, शरीर और गुण-दोनों के द्वारा पिता से श्र ेष्ठ था || ४७ || जिसकी कुशाग्र के समान तीक्ष्ण बुद्धि से राज विद्याओं की और चन्द्रमा के समान धवल कीर्ति के द्वारा दिशाओं की मर्यादा जान ली गयी थी । भावार्थ- वह अपनी बुद्धि से राजविद्याओं का पूर्ण ज्ञाता था तथा उसका निर्मल यश समस्त दिशाओं में छाया हुआ था ॥ ४८ ॥ नीतिमार्ग का जानकार होने पर भी जिसकी दया सहज - जन्मजात ही थी सो ठीक ही है क्योंकि अच्छी तरह अभ्यास किये हुए शास्त्र के द्वारा भी स्वभाव दूर नहीं किया जा सकता है। भावार्थ - राजनीति उसकी स्वाभाविक दया को नष्ट नहीं कर सकी थी ॥४६॥ सम्पूर्ण सदाचार ग्रन्य क्षुद्र पुरुषों में रहने के लिये अवकाश न पाकर जिस महान् आत्मा में ही एकत्रित होकर निवास कर रहा था || ५० || जिसप्रकार महासत्त्व - बड़े बड़े जलजन्तुनों से युक्त समुद्र अकेला ही अनन्त निर्मल रत्नोंका स्थान होता है उसीप्रकार महासत्त्व - महापराक्रमी अपराजित अकेला ही तन्त निर्मल गुणों का स्थान था ॥ ५१ ॥ जिसकी भुजानों से उत्पन्न दुर्वार प्रतापरूपी अग्नि से तपाया हुआ भी शत्रु राजाओं का समूह गर्मी से रहित था, यह आश्चर्य की बात थी ( पक्ष में ग्रहकार से रहित था ) ।।५२ ।। जो लक्ष्मीरूपी हस्तिनी के बांधने के खम्भा के समान था तथा जिसकी लम्बाई पृथिवी के उत्कृष्ट रक्षाभवन के समान थी ऐसी उसकी भुजा क्या शोभायमान नहीं हो रही थी ? || ५३ ।। जो गजराज होकर भी मद की शोभा से रहित था ( पक्ष में अनेक हाथियों का स्वामी होकर भी गर्व की लीला से रहित था ) तथा जो राजसिंह - श्रेष्ठसिंह होकर भी शान्ति से सुशोभित पराक्रम से युक्त था ( पक्ष में श्रेष्ठ राजा होकर भी जो क्षमा से विभूषित पराक्रम से युक्त था ) ॥५४॥
१. लक्ष्मी वृद्धये पक्षेकमल वृद्धये २. अवयवः ३. अतिक्रान्तः ४ कुशाग्रवत्तीक्ष्णया शुद्धमा ब । ५. सीमा ६ सदाचारः ७ महापराक्रमः पक्षे विशालजन्तुसहितः ८. ऊष्मणा रहितम् प्रक्षे गर्वेण रहितम् * विराजित म० ब० ।
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