Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 298
________________ षोडशः सर्गः २५३ उत्पलमालभारिणी स्तवकमयमुन्मयूखमुक्तास्तबकितमध्यमनेकभक्तियुक्तम् । सुरधृतमरिणदण्डिकं तदन्तनिरुपममाविरभूत्परं वितानम् ।।२२७।। प्रहर्षिणी तस्यान्तस्त्रिभुवनभूतये जिनेन्द्रो याति स्म प्रतिपदमेत्य नम्यमानः । संभ्रान्तः करधृतमङ्गलामिरामैर्वेवेन्द्रवि विभुविभूमिपैश्च भक्त्या ॥२२॥ इन्द्रवंशा तपोषनाः शिथिलितकर्मबन्धना महोदयाः सुरनतषीमहोदयाः । तमन्वयुविधुमिव शान्तविग्रहा ग्रहाः शुभाः शुभरुचयस्तमोपहम् ।।२२६।। वियोगिनी नन्ते जयकेतुभिः पुरः परितयेव विवादिनः परान् । यशसः प्रकरैरिवेशितुः शरदिन्दुध तिकान्तकान्तिभिः ॥२३०॥ वसन्ततिलका उत्थापिता सुरवरैः पथि वैजयन्ती मुक्ताफलप्रकरभिन्नदुकूलक्लप्ता। __ रेजे घनान्ततरलीकृतचारुतारा दिग्नागनाथपदवी स्वयमागतेव ।।२३१।। बीच में किरणावली से सुशोभित मोतियों के गुच्छे लटक रहे थे, जो अनेक प्रकार के बेल बूटों से सहित था, जिसके मणिमय दण्डों को देव धारण किये हुए थे तथा जो अत्यन्त श्रेष्ठ और अनुपम था ॥२२७॥ हर्ष से भरे तया हाथों में धारण किये हुए मङ्गल द्रव्यों से सुशोभित इन्द्र जिन्हें आकाश में और पृथिवी पर राजा डग डग पर आकर नमस्कार कर रहे थे ऐसे शान्ति जिनेन्द्र त्रिभुवन की विभूति के लिये-तीन लोक का गौरव बढ़ाने के लिये उस पुष्प मण्डप के भीतर विहार कर रहे थे ।।२२८।। जिनके कर्मबन्धन शिथिल हो गये हैं जो बड़ी बड़ी ऋद्धियों के धारक हैं तथा जिनकी बुद्धि का अभ्युदय देवों के द्वारा नमस्कृत है ऐसे तपस्वी मुनि उन शान्ति जिनेन्द्र के पीछे उस प्रकार चल रहे थे जिस प्रकार अन्धकार को नष्ट करने वाले चन्द्रमा के पीछे शान्ताकार तथा शुभकान्ति से युक्त शुभ ग्रह चलते हैं ।।२२६।। शरद ऋतु के चन्द्रमा की किरणों के समान सुन्दर कान्ति से युक्त विजय पताकाए उन प्रभु के आगे ऐसा नृत्य कर रही थीं मानों अन्य वादियों को पराजित कर भगवान् के यश:समूह ही नृत्य कर रहे हों ।।२३०।। मार्ग में इन्द्रों के द्वारा उठायी हुयी तथा मोतियों के समूह से खचित रेशमी वस्त्र से निमित विजय पताका ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों मेघों के अन्त में चमकते हुए सुन्दर तारों से युक्त ऐरावत हाथी का मार्ग ही स्वयं आ गया हो ।।२३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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