Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् इत्याख्याय तयोदूं तो विभूति राजवेश्मनः । ततोऽवतारयद्वयोम्नो विमानं स सभाजिरे ॥६६॥ संभ्रमप्रणतायातप्रतीहारपुरस्सरः । अमितश्चक्रिणं दूरात्प्रपनाम यथोचितम् ॥७०॥ पत्रास्वेति स्वहस्तेन राज्ञा निर्दिष्टमासनम् । प्रणामपूर्वमध्यास्त सभ्यः पृष्टो निराकुलः ॥७१।। तत्र स्थित्वा ययावृत्तं गायिकागमनं ततः । अमितोऽवसरप्राप्तं क्रमाद्राज्ञे न्यवेदयत् ।।७२।। ते प्रवेशय वेगेन द्रक्ष्यामीति तमभ्यधात् । पासन्नतिनां राजा वक्त्राण्यालोक्य मन्त्रिणाम् ।।७३।। स्वयमेवामितो गत्वा गायिके ते यथाक्रमम् । प्रावीविशत् स 'याष्टीकैः प्रोत्सार्य प्रेक्षिका सभाम् ॥७४॥ मथ तेजस्विनां नाथं प्रतापपरिशोभितम् । स्वकराकान्तविक्चक्रं विवस्वन्तमिवापरम् ॥७५।। रत्नाभरणतेजोभिः स्फुरद्भिः परितः समाम् । सृजन्तमिव दिग्दाहमनुत्पातविभूतये ॥७६।। पामोदिमालतीसूनस्रग्याजेनेव मूर्धनि । त्रिजगभ्रमरणश्रान्तां स्वकीति दघतं मुदा ॥७७॥
विक्रान्त विक्रम प्रचण्ड पराक्रम तथा सुन्दर केशर-गर्दन के बालों से युक्त हरि-सिंहों से सहित होता है उसीप्रकार राज द्वार भी विक्रान्त विक्रम-सुन्दर चालों से चलने वाले तथा गर्दन के सुन्दर बालों से युक्त हरि-घोड़ों से सहित है । जिसप्रकार वन कस्तूरी की उत्कट-बहुत भारी गन्ध से आकृष्ट भ्रमरों से युक्त होता है उसीप्रकार राज द्वार भी युक्त है और जिसप्रकार वन सुविप्रवरसेवित-अच्छे अच्छे श्रेष्ठ पक्षियों से सेवित होता है उसीप्रकार राज द्वार भी सुविप्रवरसेवित-उत्तम श्रेष्ठ ब्राह्मणों से सेवित है ।।६७-६८।। इसप्रकार उन गायिकाओं से राज भवन की विभूति का वर्णन कर दूत ने विमान को आकाश से सभाङ्गण में उतारा ॥६६।।
__तदनन्तर संभ्रम पूर्वक नम्रीभूत होकर पाया हुआ द्वारपाल जिसके आगे आगे चल रहा था ऐसे अमित ने चक्रवर्ती को दूर से ही यथा योग्य प्रणाम किया ॥७०॥ 'यहां बैठो' इसप्रकार राजा के द्वारा अपने हाथ से बताये हुए प्रासन पर प्रणाम पूर्वक निराकुलता से बैठा । सभासदों ने उससे कुशल समाचार पूछा ||७१।। तदनन्तर वहां बैठकर अमित ने जैसा कुछ हुआ तदनुसार अवसर आने पर क्रम से राजा के लिये गायिकाओं के प्रागमन की सूचना की ।।७२।। राजा ने निकटवर्ती मन्त्रियों के मुख देख कर अमित से कहा कि उन्हें शीघ्र ही प्रविष्ट करायो, देखूगा ।।७३।। अमित ने स्वयमेव जाकर तथा प्रतीहारों के द्वारा दर्शक सभा को दूर कर यथाक्रम से उन गायिकाओं को प्रविष्ट कराया ।।७४।
तदनन्तर जो तेजस्वियों का स्वामी था, प्रताप से सुशोभित था, अपने राजस्व ( टैक्स ) से ( पक्ष में किरणों से ) जिसने दिशाओं के समूह को व्याप्त कर लिया था, और इस कारण जो दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था ॥७५।। जो सभा के चारों और फैलने वाले रत्नमय आभूषणों के तेज से ऐसा जान पड़ता था मानो उत्पात रहित विभति के लिये दिग्दाह को रच रहा था ।।७६।। जो सुगन्धित मालती के फूलों की माला के बहाने तीनों जगत् में भ्रमण करने से थकी हुई अपनी कीर्ति को हर्ष पूर्वक सिर पर धारण कर रहा था ।।७७।। जो कर्णाभरण सम्बन्धी मोतियों की किरणों से
* निराकुलम् ब० १ पष्टिधारिभिः प्रतीहारैः २ स्वनिभिः राजग्राह्यधनः पक्षे किरण।
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