Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् क्षणमप्यपहायेशो' नावतिष्ठेत जातु तम् । 'जातेयं तस्य च स्वस्य प्राक्तनं वा प्रकाशयन् ।।७॥ उपमातीतसौन्दर्यविद्याविभवसंयुतः । प्रभाद्भगवतः सोऽपि प्रतिच्छन्द' इवापरः ।।८।। स्वचतुर्मागसंयुक्तं शरवामयुतद्वयम् । अगाद्भगवतस्तस्य कुमारस्थितिशालिन: ॥६॥ राजलक्ष्म्यास्ततः पारिण जनकस्तमजिग्रहत । क्रमोऽयमिति शान्तीशं शासितारमपि श्रियाम् ॥१०॥ जजागार न पाड्गुण्ये न च प्रकृतिरञ्जने । यथेष्टं वर्तमानोऽपि ययौ मण्डलनाभिताम् ॥११॥ न शत्रुर भवत्तस्य नोदासीनो न मध्यमः । लोकातिशापिनी कापि तस्याराजज्जिगीषुता ॥१२॥ 'चारहीनोऽपि निःशेषां विवेद भवनस्थितिम् । वृद्धानसेवमानोऽपि बभूव विनयान्वितः॥१३॥ साम्नि दाने च शक्तोऽपि न 'मृषोद्यो न चाल्पदः अनिस्त्रिशोऽप्यभूच्चित्रं राजधर्मप्रवर्तकः ॥१४॥ स्वपोषमपुषत्सर्वानन्तरज्ञोऽपि सेवकान् । 'अनुत्सिक्तोऽपि माहात्म्यमात्मन: ख्यापयन्निव ॥१५॥ 'मनीविभिबरकश्चिदपि नाम पृथग्जनः । मनोतिर्वसुधा सर्वा सर्वतु मिरलंकृता॥१६॥ "स्नेहादग्ध वशोपेता दीपा एव विवाभवन् । न चान्ये कामुकाः कामं जालमार्गे व्यवस्थिताः ॥१७॥
कभी क्षण भर के लिए भी अकेले नहीं रहते थे इससे जान पड़ता था मानों वे अपना और उसका पूर्वभव सम्बन्धी ज्ञाति सम्बन्ध को प्रकट कर रहे थे ॥७।। अनुपम सौन्दर्य, विद्या और वैभव से सहित वह चक्रायुध भी भगवान् शान्ति जिनेन्द्र के दूसरे प्रतिबिम्ब के समान सुशोभित हो रहा था ।।८।। कुमार स्थिति से शोभायमान उन भगवान् का जब पच्चीस हजार वर्ष का कुमार काल बीत गया तब पिता ने उन्हें राजलक्ष्मी का पाणिग्रहण कराया तथा 'यह क्रम है' ऐसा कहकर उन्हें लक्ष्मी का शासक बनाया ।।९-१०।। शान्ति जिनेन्द्र न सन्धि विग्रह आदि छह गुणों में सावधान रहते थे और न मन्त्री आदि प्रकृति वर्ग के प्रसन्न रखने का ध्यान रखते थे, इच्छानुसार प्रवृत्ति करते थे तो भी वे राजमण्डल की प्रधानता को प्राप्त थे ।।११।। न कोई उनका शत्रु था, न उदासीन था, न मध्यम था फिर भी उनकी कोई लोकोत्तर अनिर्वचनीय विजयाभिलाषा सुशोभित हो रही थी ।।१२।। वे यद्यपि गुप्तचरों से रहित थे तो भी लोककी संपूर्ण स्थिति को जानते थे और वृद्धों की सेवा नहीं करते थे तो भी विनय से सहित थे ।।१३।
__ वे साम और दान उपाय में समर्थ होकर भी न तो असत्य बोलते थे और न अल्प प्रदान करते थे। इसी प्रकार अनिस्त्रिश तलवार से रहित होकर भी ( पक्ष में क्रूरता रहित होकर भी ) राजधर्म के प्रवर्तक थे यह आश्चर्य की बात थी ।।१४।। वे अन्तर के ज्ञाता होते हुए भी समस्त सेवकों का अपने समान पोषण करते थे और अहंकार से रहित होकर भी मानों अपना माहात्म्य प्रकट कर रहे थे ॥१५।। उनके राज्य में कोई भी मनुष्य अनीति-नीति से रहित तथा अशिष्ट नहीं था। समस्त ऋतुओं से सुशोभित पृथिवी ही अनीति–अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि ईतियों से रहित थी॥१६।।
शान्ति जिनेन्द्रः २ज्ञाति सम्बन्धम् ३ प्रतिबिम्बमिव ४ वर्षाणाम् ५चरन्तीति चरा: तैनहींनोऽपि रहितोऽपि ६ मृषावादी ७ कृपाणरहितोऽपि ८ अगर्वोऽपि ६ नीतिरहितः १० इति रहितः ११ तैलात् प्रेम्ण: १२ दग्धवर्तिकासहिता, हीनदशायुक्ता ।
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