Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 280
________________ -षोडशः सर्गः २३५ यः कषायोदयात्तीवः परिणामः स देहिनामा चारित्रमोहनिष्यन्वहेतुरित्यवगम्यताम् ॥५४॥ कषायोत्पादनं स्वस्यान्येषां वा साधुदूषणम्। संक्लिष्टलिङ्गशीलाविधारणादिकमध्यलम् ।।५।। कषायवेद्यासस्य हेतुरित्यभिधीयते । निःशेषोन्मूलिताशेषकवायारिकदम्बः ॥५६॥ धर्मोपहसनं विद्यात्तथा दीनाभिहासनम् । बहुप्रलापहास्यादि हास्यवेद्यस्थ कारसम् ।।५७।। नानाक्रोडासु तात्पर्य प्रतशोलेषु चारुचिः। इत्येवमादिकं हेतू - रतिवेवस्य जायते ॥५॥ अन्यस्यारतिकारित्वं परारतिविकत्थनम्। स्यारोहशमयान्यच्चारतिवेद्यस्य कारणम् ॥५६॥ स्वशोकमूकभावत्वं परसोकप्लुतादिकम् । निमित्तं शोकवेदस्य बोलशोकाः प्रचक्षते ॥६॥ स्वाभीत्यध्यवसायाभ्यनीतिहेतुक्रियादिकम् । कारणं भयवेद्यस्य विपरित्युषाहता em जुगुप्सा च परोवाव:' कुलाचार क्रियादिषु । जुगुप्सावेदनीयस्य प्राहुरारबकारणम् ।।६२॥ प्रतिसंधान तात्पर्षमलीकालापकौशलम् । विद्यात्प्रवृतरागादि नारीवेदस्व कारणम् ॥६॥ स्तोकक्रोधोऽनुसिक्तश्च भवेत्सूत्रितवादिता। संतोषश्च स्वबारेषु पु वेवास्तवकारणम् ॥६॥ करावाधिक्यमम्बस्त्रीलङ्गो गुह्याविकर्तनम् । स्यानपुसकवेदस्य कारणं चातिमायिता ॥६५॥ सबहारम्भमूर्छादि नारकस्यायुषस्तथा। तैर्यग्योनस्य माया च कारणं परिकथ्यते ॥६६।। के आस्रव का हेतु है यह जानना चाहिए ॥५४॥ निज और पर को कषाय उत्पन्न करना, साधुओं को दूषण लगाना, संक्लिष्ट लिङ्ग तथा शीलादि को धारण करना यह सब कषाय वेदनीय के प्रास्रव का हेत है ऐसा संपूर्ण रूप से समस्त कषायरूपी शत्रों को उन्मलित करने वाले प्राचार्यों के द्वारा कहा जाता है ।।५५-५६।। धर्म की हँसी उड़ाना, दीन जनों का उपहास करना, बहुत बकवास और बहुत हास्य आदि करना; इन सब को हास्य वेदनीय कर्मका कारण जानना चाहिये ।।५७।। नाना क्रीडाओं में तत्परता, तथा व्रत और शीलों में अरुचि होना, इत्यादि रतिवेदनीय का आस्रव है ।।५८॥ दूसरों को अरति उत्पन्न करना, दूसरों की अरति को अच्छा समझना-उसकी प्रशंसा करना, तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य अरतिवेदनीय के कारण हैं ।। ५६।। अपने शोक में चुप रहना तथा दूसरे के शोक में उछल कूद करना हर्ष मनाना इसे शोक रहित श्रीगुरु शोकवेदनीय का आस्रव कहते हैं ॥६०।। अपने आप के अभय रहने का संकल्प करना और दूसरों को भय उत्पन्न करने वाले कार्यों का करना भयवेदनीय के कारण हैं ऐसा भय रहित मुनियों ने कहा है ।।६१।। कुलाचार की क्रियाओं में ग्लानि तथा उनकी निन्दा करने को जुगुप्सा वेदनीय के प्रास्रव का कारण कहते हैं ॥६२।। अत्यधिक धोखा देने में तत्परता, मिथ्या भाषण को कुशलता और बहुत भारी रागादि का होना यह स्त्रीवेद का कारण है ।।६३।। अल्प क्रोध होना, अहंकार का न होना, प्रागम के अनुसार कथन करना, तथा स्वस्त्री में संतोष रखना पुवेद के प्रास्रव का कारण है ।।६४।। कषाय की अधिकता, परस्त्री संगम, गृह्य अङ्गो का छेदना और अधिक मायाचार नपुसकवेद का कारण है।॥६५॥ बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्रह अादि नरकायु का तथा मायाचार तिर्यञ्च आयु का कारण कहा जाता है ।।६६।। निःशीलव्रतपना, स्वभाव से कोमल होना और विनय की अधिकता यह सब १ निन्दा २ प्रतारणतत्परत्वम् ॐ नारीवेद्यस्य ब० ३ अल्पभाषित्वम् ।. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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