Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ षोडशः सर्गः २४३ शून्यागाराविषुझेयं साधु शय्यासनाविकम् । पञ्चमं तत्तपः साधोविविक्त शयनासनम् ॥१४३॥ योगस्त्रकालिकेनित्यमुपवासाविषूधमः । साधोः साधुभिरित्युक्तं तपः षष्ठमनिन्दितम् ॥१४४॥ मालोचनाय गुरवे स्यात्प्रमावनिवेदनम् । प्रतिक्रमणमित्युक्तमभिव्यक्तप्रतिक्रिया ।।१४।। प्राहुस्तदुभयं जनाः संसर्गे सति शोधनम् । भक्तोपकरणादीनां विवेको भजनं तथा ॥१४६।। व्युत्सर्गः कथ्यते कायोत्सर्गादिकरणं परम् । तपश्चाप्युपवासावमोदर्यादिकलक्षणम् ।।१४७॥ 'प्रवज्याहापनं वेलाविना पक्षादिना भवेत् । परिहारो वर्जनं स्यात्पक्षमासादिसंख्यया ॥१४॥ पुनर्वीक्षासमादानमुपस्थापनमुच्यते । इत्थं नवविधं प्रायश्चित्तं चित्तवतां मतम् ।।१४६ मोक्षार्थ वाङमयाभ्यासस्मरणग्रहणादिकम् । नित्यं सबहुमानेन स ज्ञानविनयो मतः ॥१५०॥ शङ्कादिदोषरहिता तत्वाधरुचिरजसा । सम्यक्त्वविनयश्चेति कथ्यते विनयाथिभिः ॥१५१।। चारित्रेषु समाषानं तवता शुद्धचेतसा । चारित्रविनयो शेयश्चारित्रालंकृतात्मभिः ॥१५२।। अभ्युत्थानप्रणामाविराचार्यादिषु भक्तितः । प्रथोपचारविनयो विनयः स्याच्चतुर्विषः ।।१५३।। चतुर्थ तप निश्चित किया जाता है ।।१४२।। पर्वत की गुफा आदि शून्य स्थानों में जो अच्छी तरह शयनासन किया जाता है वह साधु का विविक्त शय्यासन नामका पञ्चमतप जानना चाहिए ।।१४३।। तीन काल-ग्रीष्म वर्षा और शीत काल सम्बन्धी योगों के द्वारा उपवासादि के समय साधुओं के द्वारा जो उद्यम किया जाता है वह कायक्लेश नामका छठवां प्रशंसनीय तप कहा गया है ।।१४४।। गुरु के लिए अपने प्रमाद का निवेदन करना आलोचना है। दोषों को प्रकट कर उनका प्रतिकार करना प्रतिक्रमण कहा गया है ।।१४५।। गुरूजनों की संगति प्राप्त होने पर अपराध को शुद्ध करना तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण है। आहार तथा उपकरणादिक का पृथक् करना विवेक है ।।१४६।। कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग कहलाता है। उपवास तथा ऊनोदर आदिक तप कहा जाता है । पक्ष आदि समय की अवधि द्वारा दीक्षा का छेदना छेद होता है। एक पक्ष तथा एक माह आदि के लिए संघ से अलग कर देना परिहार है और पुनः दीक्षा देना उपस्थापन कहलाता है । इस प्रकार यह नौ प्रकार का प्रायश्चित तप ज्ञानीजनों को इष्ट है ।।१४७-१४६।। - मोक्ष के लिए पागम का अभ्यास स्मरण तथा ग्रहण आदिक निरन्तर बहुत सम्मान से करना ज्ञानविनय माना गया है ।।१५०।। शङ्का आदि दोषों से रहित तत्त्वार्थ की वास्तविक रुचि होना सम्यक्त्व विनय है ऐसा विनय के इच्छुक जनों के द्वारा कहा जाता है ।।१५१।। चारित्र के धारक मनुष्यों को शुद्ध हृदय से चारित्र में समाहित करना-वैत्यावृत्य के द्वारा स्थिर करना चारित्र से अलंकृत आत्मा वाले मुनियों द्वारा चारित्र विनय जानना चाहिए ॥१५२।। प्राचार्य आदि के आने पर भक्तिपूर्वक उठकर उनके सामने जाना तथा प्रणाम आदि करना उपचार विनय है। इस प्रकार यह चार प्रकार का विनय तप है ।।१५३।। १ दीक्षाच्छेदः २समयावधिना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344