Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 295
________________ २५० श्रीशांतिनाथपुराणम् ये वीतरागाः शशिरश्मिगौरा लोकेश्वरस्येव गुणाः प्रकाशाः । स बासवास्ते वसवस्ततोऽष्टौ सारस्वताद्या वरिवस्यवैत्य ।।२०७।। मय प्रसीदाप्रतिमप्रताप वेला विमो लोकहितोयमे ते । जातेति विज्ञाप्य नमन्ति ते स्म लोकेश्वरं लोकंगुरो क्रमोऽयम् ॥२०८ । ततः ऋमात्प्रक्रमते स्म शम्भुरारोतुमने गत'मन्जयानम् । विखसमानाम्बुधिवारिबासा मूस्तत्क्षणं सप्रमदा ननत ॥२०६॥ शान्तिजिनेन्द्रो विहरत्यर्थव प्रवर्तता शान्तिरशेषलोके । ज्यघोषपन्विवियति धीरनाव: प्रास्थानिकस्तस्पटहो ररास ॥२१०॥ प्रतिताना प्रमः प्रमोवाद्गीताट्टहासस्तुतिमङ्गलानाम् । उच्चावचक्वेलितनावमिन्नो रवस्त्रिलोकीविवर जगाहे ।।२१।। गान्धर्वमुख्यदिवि बाघमानरातोवर्गरनुगन्यमानाः ।। सुराङ्गना बजितसत्यशाला: शरीरयोगमन्तुः सलीलम् ॥२१२।। माकण्य॑माना विहितावधानः श्रुतापि देवमुहुरश्रुतेव। भर्तुर्यशोगर्भतया विशुद्धा रक्ताप्यमूस्किन्नरमुख्यगीतिः ।।२१३॥ तदनन्तर जो वीतराग थे, चन्द्रमा की किरणों के समान गौर वर्ण थे, और शान्ति जिनेन्द्र के गुणों के समान प्रकाशमान थे ऐसे सारस्वत प्रादि अाठ लौकान्तिक देव इन्द्र सहित आ कर तथा पूजा कर कहने लगे कि हे अतुल्य प्रताप के धारक ! प्रभो ! जय हो, प्रसन्न होओ, यह आपका लोक हित के उद्यम का समय आया है । ऐसा कहकर उन्होंने जगत् के स्वामी शान्तिप्रभु को नमस्कार किया तथा यह भी कहा कि हे लोकगरो ! यह एक क्रम है। भावार्थ-हे भगवन् ! आप स्वयं लोकगरु हैंतीनों लोकों के गुरु हैं इसलिये आपको कुछ बतलाने की बात नहीं है मात्र यह क्रम है-हम लोगों के कहने का नियोग मात्र है इसलिये प्रार्थना कर रहे हैं ।।२०७-२०८॥ तदनन्तर भगवान् आगे स्थित पद्मयान पर क्रम से प्रारूढ होने के लिये उद्यत हुए । उससमय जिसका समुद्रसम्बन्धी जल रूपी वस्त्र खिसक रहा था ऐसी पृथिवी हर्ष से नृत्य करने लगी ॥२०६।। 'अब यह शान्ति जिनेन्द्र विहार कर रहे हैं इसलिये समस्तलोक में शान्ति प्रवर्तमान हो' इसप्रकार की दिशाओं में घोषणा करता हुआ विशाल शब्द वाला प्रस्थान कालिक नगाड़ा शब्द कर रहा था ।।२१०। प्रमथ जाति के देवों के द्वारा हर्ष से प्रवर्तित गीत अट्टहास तथा स्तुतिरूप मङ्गलगानों के ऊंचे नीचे शब्दों से मिला हुआ वह नगाड़ा का शब्द तीनों लोकों के मध्य में व्याप्त हो गया ।।२१।। मुख्य गन्धों के द्वारा आकाश में बजाये जाने वाले बाजों के समूह के अनुसार चलने वाली देवाङ्गनाएं शरीर के योग से सात्त्विकभावों को प्रकट करती हुई लीलापूर्वक नृत्य कर रहीं थीं ॥२१२।। मुख्य किन्नरों का गान यद्यपि देवों ने बार बार सुना था परन्तु उस समय वह पहले न सुने हुए के १पभयानम् २ प्रस्थानकालभव: ३ शब्दं चकार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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