Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनापपुराणम् प्राध सामायिक प्रामारि हिनि पुनः । कालेनानियतेनेक नियोनान्यांसोपुलम् ।। छेखोपस्थापनं मान परिवमिति मन्यते । निवृत्तिा प्रविमानेन मिच्यो वा प्रतिक्रिया परिहारविशुनपाल्यं परिहारविखितः । स्यात्सूक्ष्मसांपायाच सूक्मीकृतकवायत: १३n चारित्रमोहनीयस्थ मयेनोपामेन च । यायातबसमवस्मानं यथास्यातं प्रचक्ष्यते ।।१३७॥ तासा निरा विद्याद् द्विप्रकारं तपांच तत् । बाह्यमाभ्यन्तरं चेति प्रत्येकं तच्च षषिम् ॥१३॥ संयमादिप्रसिद्धधर्व रागपिन्छामाय । कर्मनिर्मूलनाबाहुणचं वनशनं तपः ॥१३६॥ बोषप्रशमसंतोषस्वाध्यावाविप्रसिद्धये । द्वितीयमवमोक्यं तपः सद्भिः प्रशस्यते ॥१४॥ एकागाराविविषयः संकल्पश्चितरोधकः । तवृत्ति परिसंख्यानं तृतीयं कथ्यते तपः ॥१४॥ स्वाध्यायलसिवपर्यममार्गप्रशान्तये । तपो रसपरित्यागस्तुमाय: प्रधार्यते ॥१४२।।
... सामायिक नामक प्रथम चारित्र को दो प्रकार का कहते हैं-एक अनियत काल से सहित है और दूसरा नियत काल से युक्त है। भावार्थ-जिसमें समय की अवधि न रखकर सदा के लिए समताभाव धारण कर सावध कार्यों का त्याग किया जाता है वह अनियतकाल सामायिक चारित्र है और जिसमें समय की सीमा रख कर त्याग किया जाता है वह नियतकाल सामायिक चारित्र है ॥१३४।। जिसमें छेद विभाग पूर्वक हिंसादि पापों से निवृत्ति की जाती है अथवा व्रतभङ्ग होने पर उसका निराकरण पुनः शुद्धता पूर्वक व्रत धारण किया जाता है वह छेदोपस्थापना नामका चारित्र कहा जाता है । भावार्थ-छेदोपस्थापना शब्द की निरुक्ति दो प्रकार से होती है 'छेदेन उपस्थापना छेदोपस्थापना' अर्थात् मैं हिंसा का त्याग करता हूं, असत्य भाषण का त्याग करता है इस प्रकार विभाग पूर्वक जिसमें सावध कार्यों का त्याग होता है वह छेदोपस्थापना चारित्र है । अथवा 'छेदे सति उपस्थापना छेदोपस्थापना' अर्थात् व्रत में छेद--भङ्ग होने पर पुनः अपने आपको व्रताचरण में "उपस्थित करना छेदोपस्थापना है ।।१३५॥ परिहार विशुद्धि से-तपश्चरण से प्राप्त उस विशिष्ट शुद्धि से जिसके कारण जीव राशि पर चलने पर भी जीवों का घात नहीं होता है, होने वाला चारित्र "परिहार विशुद्धि नामका चारित्र कहलाता है । अतिशय सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त हुयी कषाय से जो होता है वह सूक्ष्मसांपराय नामका चारित्र है ।।१३६॥ चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के यथार्थ स्वरूप में जो अवस्थिति है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है ।।१३७।।
तपसा निर्जरा को जानना चाहिये अर्थात् तप के द्वारा संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से वह तप दो प्रकार का है तथा प्रत्येक के छह छह भेद होते हैं ।।१३८।। संयमादि की सिद्धि के लिये, राग का विच्छेद करने के लिए और कर्मों का क्षय करने के लिये जो आहार का त्याग किया जाता है वह अनशन नामका प्रथम बाह्य तप है ॥१३६।। दोषों का प्रशमन संतोष तथा स्वाध्याय आदि की प्रसिद्धि के लिये सत्पुरुषों द्वारा दूसरे अवमोदर्य (निश्चित आहार से कम आहार लेना) तप की प्रशंसा की जाती है ।।१४०।। 'मैं एक घर तक या दो घर तक प्राहार के लिए जाऊंगा' इस प्रकार मन को रोकने वाला संकल्प करना वृत्ति परिसंख्यान नामका तृतीय तप कहलाता है ।।१४१।। स्वाध्याय की सुख पूर्वक सिद्धि के लिए तथा इन्द्रियों का दर्प शान्त करने के लिए जो घी दूध आदि रसों का परित्याग किया जाता है वह आर्य पुरुषों द्वारा रस परित्याग नामक
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