Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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भीशांतिनाथपुराणम् यवन्यस्तमपि ज्ञानं योग्यायापि न दीयते । तन्मात्सर्यमिति प्राहुराचार्याः कार्यशालिनः ॥४३॥ ज्ञानवृत्तिव्यवच्छेवकरणं परिकोय॑ते । अन्तराय इति प्राजः प्रजामवविजितः ॥४॥ अवहेलमिति शाने प्राहुरासदनां बुधाः । उपधातमिति ज्ञानपिनाशन समुद्यति ॥४॥ दुःखं शोकाच कश्यन्ते तापश्चाक्रन्दनं वधः । परिदेवनमित्येतान्यसातालवहेतवः ।।४६॥ स्वपरोभययुक्तानि तानि लेयानि धीमता । प्राधिदु:खमितिप्रोक्तं शोकोऽन्यविरहासुखम् ॥४७॥ तापो विप्रतिसारः स्यादाकन्छन मितीर्यते । संतापजाश्रुसंतान प्रलापादिभिरन्वितम् ॥४८॥ पापुरमसमालविकोपारणं यः । हेतुः परानुकम्पादेः परिदेवममुच्यते ॥४६॥ मूतनत्यनुकम्पा त्यागः शौचं क्षमा परा। सरागसंयमादीनां योगश्चेत्येवमादिकम् ॥१०॥ सवालबहेतुः स्यादिति विल्लिाहलम् । सत्त्वाक्षेपभोत्थस्य विरतिः संघमो मतः ॥२१॥ संसारकारसत्यागं प्रत्यारों' निरन्तरः । स चामीणाशय: सद्धिा सराग इति कथ्यते ॥५२॥ केवलिश्रुतसद्धानां धर्मस्य च दिवौकसाम् । हेतुस्त्व वर्गवारः स्यात् दृष्टिमोहालवस्य च ॥५३॥
शान नहीं दिया जाता है उसे कार्य से सुशोभित प्राचार्य मात्सर्य कहते हैं ।।४३।। ज्ञान की वृत्ति का विच्छेद करना, प्रज्ञा के मद से रहित ज्ञानीजनों के द्वारा अन्तराय कहा जाता है ।।४४।। ज्ञान के विषय में जो अनादर का भाव होता है उसे विद्वज्जन प्रासादना कहते हैं और ज्ञान को नष्ट करने का जो उद्यम है उसे उपधात कहते हैं ।।४५।।
दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय के आस्रव के हेतु हैं ।।४६।। ये दुःख शोकादि निज, पर और दोनों के लिए प्रयुक्त होते हैं ऐसा बुद्धिमान जनों को जानना चाहिए। मानसिक व्यथा को दुःख कहा गया है। अन्य के विरह से जो दु:ख होता है उसे शोक कहते हैं ।।४७।। पश्चात्ताप को ताप कहते हैं। जिसमें सन्ताप के कारण अश्रुओं की संतति चालू रहती है तथा जो प्रलाप आदि से सहित होता है वह आक्रन्दन कहलाता है ।।४८॥ आयु, इन्द्रिय, बल तथा श्वासोच्छ्वास का वियोग करना वध है । और ऐसा विलाप करना जो दूसरों को दया आदि का कारण हो परिदेवन कहलाता है ।।४६।।
भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, शौच, उत्तम क्षमा, और सराग संयमादि का योग इत्यादिक सातावेदनीय के प्रास्रव के हेतु हैं ऐसा ज्ञानीजनों ने कहा है। प्राणियों तथा इन्द्रियों में अशुभोपयोग का जो त्याग है वह संयम माना गया है ।।५०-५१।। जो संसार के कारणों का त्याग करने के प्रति निरन्तर तत्पर रहता है परन्तु जिसकी सराग परिणति क्षीण नहीं हुयी है वह सत्पुरुषों के द्वारा सराग कहा जाता है ।।५२॥
केवली, श्रत, सङ्घ, धर्म और देवों का प्रवर्णवाद-मिथ्या दोष कथन दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का हेतु है ।।५३।। कषाय के उदय से प्राणियों का जो तीव्र परिणाम होता है वह चारित्र मोह
१ समुद्यत: २. अविद्यमान दोषकथनम् ।
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