Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् भेदा ज्ञानावृतेः पञ्च नव स्युर्दर्शनावृतेः । भेवद्वयं तथा चोक्तं वेदनीयस्य कर्मलः ॥९॥ अष्टाविंशतिमेवः स्यान्मोहनीयस्य चायुषः । चतुर्विषोमवेन्नाम्नो मेदास्त्रिनवतिः स्मृताः ॥२॥ विमेदं गोत्रमिच्छन्ति विघ्नः पञ्चविधः स्मृतः। पिण्डिता द्विगुणा याः सप्ततिश्चतुल्तरा ॥३॥ प्रथ बन्धोक्यो कर्मप्रकृतीनामुदीरणा । सत्ता चेति चतुर्भेदो शेयो निःश्रेयसाचिना ॥४॥ 'चतु पञ्चकृती ज्ञेयो २पूर्वयोरखते दश। चतन्त्रः षट् तबका च संयतासंयतादिषु ।।६।। उभे त्रिशदपूर्वस्थे चतनश्व तयोविताः। अनिवृत्तिगुणस्थाने पच सूक्ष्मेऽपि षोडश ॥६॥ एका सयोगिनि जिने साताख्या परिकीत्य॑ते । मायान्त्येता गुणेन्वेषुः बन्ध प्रकृतयः क्रमात ॥७॥ तता पच नका व दश सप्ताधिकास्तथा । अष्टौ पञ्च चतलारपट्का तथा द्वयम् ॥८॥ उदयं षोडश त्रिशद् द्वाररीता यथाक्रमम् । यांति प्रकृतयः सम्यगयोगान्तेषु पधामसु ॥ ततः पञ्च मका च दश सप्ताषिकास्तथा । मष्टायष्टौ चतत्रश्च षट्पडेका तथा द्वयी ॥१०॥ षोडश शिवधिका ममित्युिवीरणाम् । सयोगिजिनपर्यन्तेष्वादितः क्रमशोऽध्वसु ॥१०॥
दर्शनावरण के नौ भेद हैं और वेदनीय कर्म के दो भेद कहे गये हैं ॥६१।। मोहनीय के अट्ठाईस, आयु के चार और नाम कर्म के तेरानवे भेद माने गये हैं ॥६२।। गोत्र कर्म के दो भेद हैं, अन्तराय कर्म के पांच भेद हैं और सबके मिलकर एक सौ पाठ भेद जानना चाहिए ।।६३॥
अथानन्तर मोक्षाभिलाषी जीव को कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता ये चार भेद ज्ञातव्य हैं-जानने के योग्य हैं ॥१४॥ प्रथम-द्वितीय गुणस्थान में क्रम से चार का वर्ग अर्थात् सोलह और पांच का वर्ग अर्थात् पच्चीस, अव्रतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दश, संयता संयतादि तीन गुणस्थानों में क्रम से चार, छह और एक, अपूर्वकरण गुणस्थान में दो तीस और चार मिलाकर छत्तीस, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पांच, सूक्ष्म साम्पराय में सोलह और सयोगी जिनमें एक साता वेदनीय कही जाती है। ये प्रकृतियां इन गुणस्थानों में ही क्रम से बन्ध को प्राप्त होती हैं उपरितन गुरणस्थानों में इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है ।।९५-६७॥ . तदनन्तर पांच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पांच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह ये प्रकृतियां क्रम से अयोगि केवली पर्यन्त गुणस्थानों में उदय को प्राप्त होती हैं अर्थात् अग्रिम गुणस्थानों में इनकी उदयव्युच्छित्ति होती है ।।६८-६६।।
तदनन्तर पांच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पाठ, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह और उनतालीस ये प्रकृतियां प्रारम्भ से लेकर सयोगि जिन पर्यन्त गुणस्थानों में कम से उदीरणा को प्राप्त होती हैं अर्थात् उपरितन गुणस्थानों में इनकी उदीरणा व्युच्छित्ति हो जाती है ॥१००-१०१॥
१ चतुःकृतिः -षोडश, पञ्चकृतिः -पञ्चविंशतिः २ प्रथमद्वितीयगुषस्थानयोः ३ सर्वा मिलिता: षट्त्रिशत् ४ सोलस पण बीस रणभं दस चउछक्केक्क वंध वोच्छिण्णा दुगतीस चदुरपुव्वे पण सोलरा जोगियो एक्को।। कर्मकाण्ड ६४ गाथा ५ गुणस्थानेषु, पण गव इगि सत्तरसं अड पंच च चउर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलसतीसं वारस उदये अजोगंता ।।२६।। कर्मकाण्डे । ६ पण रणव इगि सत्तरसं अट्ठट्ठ ग चदुर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलुगदालं उदीरणा होंति जोगंता ।।२८१।। कर्मकाण्डे ।
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