Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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षोडशः सर्गः
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मिथ्यात्वं मित्रसम्यक्त्वे यान्ति संयोजनान्यपि। अवताद्यप्रमत्तान्तस्थानेष्वेकत्र संक्षयम् ॥१०२।। तिर्यक नरकवायुः स्वे स्वे जन्ममि निश्चितम् । परिक्षयं समभ्येति सत्रत्याना तनूभृताम् ।।१०३॥ 'षोडशाष्टावका पट् केका सबैकका। अनिवृत्तौ तथैका च सूक्ष्मे चैका विनश्यति ॥१०४।। क्षीणे धोडश चायोगे द्वासप्ततिरुपातिमे। समये च तथान्त्ये च विनश्यन्ति प्रयोदश ॥१०५।। प्राधे मोहविघ्ने च दुःखदायीनि देहिनाम् । शेषाणि सुखदुःखस्य कारणानि विनिदिशेत ।।१०६।। एभिर्विवर्तमानस्य परिवर्तनपञ्चकम् । संसार इति जीवस्य ज्ञेयः संसारभीरुभिः ॥१७॥ एकेन पुद्गलद्रव्यं वसत्सर्वमनेकशः । उपयुज्य परित्यक्तमात्मना द्रव्यसंसृतौ ॥१०८॥ लोकत्रयप्रदेशेषु समस्तेषु निरन्तरम् । भूयोभूयो मृतं जातं जीवेन क्षेत्रसंसृतौ ॥१०॥
मिथ्यात्व, सम्यङ मिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृति और विसंयोजना को प्राप्त होने वाली अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, ये सात प्रकृतियां अव्रत सम्यग्दृष्टि को आदि लेकर अप्रमत संयत तक गुण स्थानों में से किसी एक में क्षय को प्राप्त होती हैं भावार्थ-उन सात प्रकृतियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के अन्त समय में एक ही बार विसंयोजनअप्रत्याख्यानावरणादि रूप परिणमन होता है तथा अनिवृत्तिकरणकाल के बहुभाग को छोड़कर शेष संख्यातवें एक भाग में पहले समय से लेकर मिथ्यात्व, मिश्र तथा सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय होता है ॥१०२॥ तिर्यञ्च प्रायु, नरक आयु और देवायु अपनी अपनी गति में वहां उत्पन्न होने वाले जीवों के नियम से क्षय को प्राप्त होती है । भावार्थ-तिर्यञ्च आयु का अस्तित्व पञ्चम गुणस्थान तक और नरक तथा देवायु का अस्तित्व चतुर्थ गुणस्थान तक ही रहता है आगे नहीं ।।१०३।। अनिवृत्ति करण गुणस्थान में कम से सोलह.पाठ.एक.एक.छह.एक.एक.एक, एक और सूक्ष्म सांपराय गणस्थान में एक प्रकृति नाश को प्राप्त होती है । भावार्थ-अनिवृत्ति करण के नौ भागों में क्रम से सोलह पाठ आदि प्रकृतियों का क्षय होकर उनकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है ।।१०४॥ क्षीणमोह गुणस्थान में सोलह और अयोगकेवली के उपान्त्य समय में बहतर तथा अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियां क्षय को प्राप्त होती हैं ॥१०५।।
प्रारम्भ के दो कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा मोह और अन्तराय ये चार कर्म जीवों को दुःख देने वाले हैं । शेष चार कर्म सुख दुःख के कारण उपस्थित करते हैं ।।१०६।। इन कर्म प्रकृतियों से विविध पर्यायों को धारण करने वाले जीव के जो पांच परिवर्तन होते हैं उन्हें संसार से भयभीत मनुष्यों को संसार जानना चाहिये । भावार्थ -कर्मों के कारण जीव नानारूप धारण करता हुआ द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव इन पांच परिवर्तनों को करता है । उन परिवर्तनों का करना ही संसार है ।।१०७।। जितना कुछ पुद्गल द्रव्य है उस सब को एक जीव ने द्रव्य परिवर्तन में अपने आपके द्वारा अनेकों बार ग्रहण करके छोड़ा है ॥१०८। इस जीव ने क्षेत्र परिवर्तन के बीच तीनों लोकों के समस्त प्रदेशों में बार बार जन्म मरण किया है ।।१०६ ।। उत्सपिणी और अवसर्पिणी में वे समयावलियां नहीं
१ सोलट्ठ स्किगिछक्कं चदुसेक्कं वादरे अदो एक्कं । खीणे सोलस जोगे वायत्तरि तेरुवत्तते ॥३३७॥कर्मकाण्डे २ द्रव्य क्षेत्र काल भवभावभेदेन परिवर्तनं पञ्चविधम् ३ द्रव्यपरिवर्तने ४ क्षेत्रपरिवर्तने ।
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