Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
पञ्चदशः सर्गः
२१५
एवमेतावतीं वाचमुदीर्यावसितं विभोः । लौकान्तिकसमान वाचाला न हि साधवः ।।७।। इति तद्वचसा तेन स्वबोधेन च भूयसा । मुमुक्षुरभवद्भर्ता प्रव्रज्यायां समुत्सुकः ||८|| लौकान्तिकान्विसज्येशो 'लोकान्तस्थयशोनिधिः । सूनौ नारायणाख्ये स्वां वंशलक्ष्मीं समर्पयत् ॥ ६ ॥ साम्राज्यं तादृशं तस्मिजिहासौ बालिशैरपि । तपस्येव हिता पुंसां न लक्ष्मीरित्यमन्यत ||१०|| ततश्चतुः प्रकाराणां देवानां भूरिसंपदा । अनेकविधवाहानां सहसापूरि तत्पुरम् ।।११।। निकीर्णमुपशल्येषु विमानबॅबुधेः ४ परम् । भूमिस्थमपि नाकस्य तन्मध्यस्थमिवाभवत् ॥ १२ ॥ शङ्खदुन्दुभिनिष्कान प्रध्वा नितदिगन्तरम् 1 सुरराजन्य पौरोघै रम्यवेचि क्रमात्प्रभुः ।।१३। विवृतोद्गमनीयोऽगात्सभां शरच्चन्द्रांशुनीकाशे
कृतावत ररणः
पूर्व कुशहूर्यायवाक्षतैः । चन्दनेन समालभ्य स्वयशोराशिशोचिषा ।
शक्रपुरःसरः ।। १४॥
दुकूले पर्यधान्नवे ॥१५॥ घृतकुब्ज कशेखरः 1 स शोभां कामपि प्रापत्तपोलक्ष्मीवधूवरः ॥ १६ ॥ तिरोदधे । तबस्थामुत्सुके तस्मिम्प्रभौ साम्राज्यपद्मया ॥१७॥
मुक्तालंकारसंपन्नो सौभाग्यभङ्गसंभूतत्रपद्येव
समूह चुप हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन वाचाल - व्यर्थ बहुत बोलने वाले नहीं होते हैं ||७|| इस प्रकार मोक्ष के इच्छुक शान्तिप्रभु लौकान्तिक देवों के उस वचन से तथा बहुत भारी आत्मज्ञान से दीक्षा लेने के लिये उत्सुक हो गये || ८ || जिनकी कीर्तिरूपी निधि लोक के अन्त तक विद्यमान थी ऐसे स्वामी शान्तिनाथ ने लौकान्तिक देवों को विदा कर नारायण नामक पुत्र पर अपनी वंश लक्ष्मी को समर्पित किया अर्थात् राज्य पालन का भार नारायण नामक पुत्र के लिये सौंपा ॥ ६ ॥ जब शान्ति जिनेन्द्र उस प्रकार के साम्राज्य को छोड़ने की इच्छा करने लगे तब प्रज्ञानी जनों ने भी यह मान लिया कि तपस्या ही प्राणियों के लिये हितकारी है लक्ष्मी नहीं || १० |
तदनन्तर अनेक प्रकार के वाहनों से सहित चार प्रकार के देवों की बहुत भारी संपदा से वह नगर शीघ्र ही परिपूर्ण हो गया ||११|| समीपवर्ती प्रदेशों में देवों के विमानों से अत्यन्त भरा हुआ वह नगर भूमि पर स्थित होता हुआ भी स्वर्ग के मध्य में स्थित के समान हो गया था ।।१२।। शङ्ख और दुन्दुभियों के शब्दों से दिशाओं का अन्तराल जिस तरह शब्दायमान हो उस तरह देवों, राजाओं और नगर वासियों के समूह ने क्रम से प्रभु का अभिषेक किया ।। १३॥
कुश, दूर्वा, जौ और प्रक्षतों के द्वारा जिनकी पहले आरती की गयी थी, जिन्होंने उज्ज्वल वेष धारण किया था तथा इन्द्र जिनके आगे आगे चल रहा था ऐसे शान्ति प्रभु सभा में गये || १४ || अपनी यशोराशि के समान शुक्ल चन्दन के द्वारा लेप लगा कर उन्होंने शरच्चन्द्र की किरणों के समान दो नवीन वस्त्र धारण किये ।। १५ ।। जो मोतियों के प्राभूषणों से सहित थे, जिन्होंने छोटा सेहरा धारण किया था तथा जो तपोलक्ष्मी रूपी वधू के वर थे ऐसे शान्तिप्रभु कोई अनिर्वचनीय शोभा को प्राप्त हुए ।। १६ ।। वे प्रभु जब तपत्या के लिये उत्सुक हुए तब सौभाग्य भङ्ग से उत्पन्न लज्जा के कारण ही मानों साम्राज्य लक्ष्मी तिरोहित हो गयी - कहीं जा छिपी ॥ १७ ॥ जिनका मुख ऊपर की ओर था ऐसे
१ दीक्षायां २ लोकान्तस्थो यशोविधिर्यस्य सः
Jain Education International
३ हातुमिच्छो ४ विसधानां सम्बन्धिभिः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org