Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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पंचदशा सी
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शग्दोऽथ लिङ्गसंख्यादिव्यभिचारान्न चेच्छति । अन्यार्थानामथान्याः संबन्धानुपपत्तितः ॥१०६॥ समतीत्य च नानार्थानेकमयं सुनिश्चितम् । सम्यक्सदाभिमुख्येन रूढः समभिरूढकः ॥१०७।। नानार्थानथवा सिद्धान्भवेत्सममिरोहणात् । तस्मिन्समभिरूढो वा रूढो यत्राभिमुख्यतः ॥१०८॥ यथा गौरित्ययं शब्दो वागादिषु विनिश्चितः । अधिकढः पशावेवमिन्द्रादिश्चात्मनि स्थितः ॥१०॥ प्रथ येनात्मना भूतं तेनैवाध्यवसाययेत् । एवंमूतो यथा सक्रः शकनादेव नान्यथा ॥११०।। पूर्वपूर्वविक्तोषविषया नगमाषयः । अनुकूलाल्पविषयाश्चोत्तरोत्तरतस्तथा ॥१११॥
पदार्थों के साथ सम्बन्ध संगत न होने के कारण लिङ्ग संख्या आदि के दोषों को स्वीकृत नहीं करता है वह शब्द नय कहलाता है। भावार्थ-लिङ्ग संख्या तथा साधन आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला नय शब्द नय कहलाता है। जैसे 'पुष्प, तारका और नक्षरण'। ये भिन्न भिन्न लिङ्ग के शब्द है इनका मिलाकर प्रयोग करना लिङ्ग व्यभिचार है । जलं, पापः, वर्षा: ऋतु, आम्रा वनम, वरुणा नगरम्, इन एक वचनान्त और बहुवचनान्त शब्दों का विशेषण विशेष्य रूप से प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है । 'सेना पर्वत मधि-वसति'-सेना पर्वत पर निवास करती है- यहां अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है इसलिए यह साधन व्या 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि यातस्ते पिता'--'पायो तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊंगा, परन्तु नहीं जाओगे, तुम्हारे पिता गये' । यहां 'मन्यसे' के स्थान में 'मन्ये' और 'यास्यामि' के स्थान में 'यास्यति' क्रिया का प्रयोग होने से पुरुष व्यभिचार है। 'विश्वद्दश्वास्य पुत्रो जनिता'इसका विश्वदृश्वा-जिसने विश्व को देख लिया है ऐसा पुत्र होगा। यहां 'विश्वदृश्वा' कर्ताका 'जनिता' इस भविष्यत्कालीन क्रिया के साथ प्रयोग किया गया है अत: कालव्यभिचार है । 'संतिष्ठते प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति,' । यहां सम् और प्र उपसर्ग के कारण स्था धातुका आत्मनेपद प्रयोग और वि तथा उप उपसर्ग के कारण रम धातुका परस्मैपद प्रयोग हुआ है-यह उपग्रहव्यभिचार है। यद्यपि व्यबहार में ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि शब्दनय इसप्रकार के व्यवहार को स्वीकृत नहीं करता है । क्योंकि पर्यायाथिक नय की दृष्टि में अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता ॥१०६।।
जो नाना अर्थों का उल्लङ्घन कर सदा मुख्य रूप से अच्छी तरह एक सुनिश्चित अर्थ को ग्रहण करता है वह समभिरूढ नय है। अथवा एक शब्द के जो नाना अर्थ प्रसिद्ध हैं उनमें से जो मुख्य रूप से एक अर्थ में अच्छी तरह अभिरूढ होता है वह समभिरूढ नय है । जैसे 'गो' यह शब्द वचन आदि अर्थों में प्रसिद्ध है परन्तु विशेषरूप से पशु अर्थ में रूढ है । इसी प्रकार इन्द्र आदि शब्द आत्मा अर्थ में रूढ हैं ।। १०७-१०६॥
जो वस्तु जिस काल में जिस रूप से परिणत हो रही है उस काल में उसका उसी रूप से निश्चय करना एवं भूत नय है जैसे शक्ति रूप परिणत होने के कारण इन्द्र को शक कहना अन्य प्रकार से नहीं । भावार्थ-जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना उचित है अन्य समय नहीं । जैसे लोकोत्तर शक्तिरूप परिणमन करते समय ही इन्द्र को शक्र कहना और लोकोत्तर ऐश्वर्य से संपन्न होते समय ही इन्द्र कहना अन्य समय नहीं ॥११०॥ ये नैगमादि नय अन्तिम भेद से लेकर पूर्व पूर्व भेदों में विरुद्ध तथा विस्तृत विषय को ग्रहण करने वाले हैं
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