Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशांतिनाथपुराणम् वस्तुनोऽनन्तशक्तेस्तु प्रतिशक्ति विकल्पना । एते बहुविकल्पाः स्युगुणमुख्यतयाहिताः ॥११२॥ तदतद्वितयाā तविशेषणविशेष्यजः । भेदैर्नानाविधैर्युक्तं वस्तुतत्त्वं प्रतीयते ॥११३।। स्वात्मेतरद्वयातीतसाधारणसुलक्षणाः ।पदार्थाः सकलाः सम्यक् 'सप्तभङ्गीत्वमुहयताम् ॥११४॥ सिद्धाः संसारिणश्चेति जीवा भेदद्वपान्विताः । सिद्धास्त्वेकविधा ज्ञेयाः शेषा बहुविधास्ततः ॥११॥ स्वरूपपिण्डप्रवृत्त्यप्रवृत्तय इतीरिताः । सामान्यं च विशेषश्च सामयं च मनीषिभिः ।।११६।। असामयं च जीवस्य प्रकाशनमपि क्रमात् । अप्रकाशनमित्येते दशान्वययुजो गुणाः ॥११७॥ असादृश्याधिका एते क्रमाद यतिरेकिकाः । एकादश गुणा ज्ञेयाः प्राज्ञेरध्यात्मवेदिभिः ॥११॥ प्रथोपशमिको भावः क्षायिको व्यतिमिश्रितः । जीवस्यौदयिकोभावो विज्ञेयः पारिणामिकः ॥११९।।
और प्रथम भेद से लेकर आगे आगे अनुक्ल तथा अल्प विषय को ग्रहण करने वाले हैं ॥१११।। चूकि वस्तु अनन्त शक्त्यात्मक है और प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा विविध विकल्प उत्पन्न होते हैं इसलिये ये नैगमादि नय बहुत विकल्पों-अनेक अवान्तर भेदों से सहित हैं तथा गौण और मुख्य से उनका प्रयोग होता है ॥११२॥
तभाव अतदभाव, द्वैतभाव, अद्वैतभाव, तथा विशेषण और विशेष्यभाव से उत्पन्न होने वाले नाना भेदों से वस्तु तत्त्व की प्रतीति होती है। भावार्थ-यतश्च द्रव्य सब पर्यायों में अन्वयरूप से विद्यमान रहता है इसलिये द्रव्य दृष्टि से वस्तु तभाव से सहित है परन्तु एक पर्याय अन्य पर्याय से भिन्न है अतः पर्याय दृष्टि से वस्तु अतद्भाव से सहित है। सामान्य-द्रव्य की अपेक्षा वस्तु अद्वैत-एक रूप है और विशेष-पर्याय की अपेक्षा द्वैत रूप है अथवा गुण और गुणी में प्रदेश भेद न होने से वस्तु अद्वै तरूप है और संज्ञा, संख्या तथा लक्षण आदि में भेद होने से द्वैत रूप है । 'प्रात्मा ज्ञानवान्' है यहां 'ज्ञानवान्' विशेषण है और 'आत्मा' विशेष्य है परन्तु ज्ञान और आत्मा के प्रदेश जुदे जुदे नहीं हैं इसलिये ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा हो ज्ञान है इसप्रकार प्रात्मा विशेषण विशेष्यभाव से रहित है । वस्तु के भीतर इन उपर्युक्त भेदों की प्रतीति होती है इसलिये वस्तु अनन्त भेदरूप है ।।११३।। समस्त पदार्थ निज और पर के विकल्प से रहित साधारण--सामान्य लक्षण से युक्त हैं । इन सब पदार्थों के परिज्ञान के लिये स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्तिप्रवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य और स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य इस सप्तभङ्गी को अच्छी तरह समझना चाहिये ।।११४।।
सिद्ध और संसारी इसप्रकार जीव दो भेदों से सहित हैं। उनमें सिद्ध एक प्रकार के और संसारी अनेक प्रकार के जानना चाहिये ॥११॥ स्वरूप, पिण्ड, प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति, सामान्य, विशेष, सामर्थ्य, असामर्थ्य, प्रकाशन और अप्रकाशन ये जीव के क्रम से दश अन्वय-द्रव्य से सम्बन्ध रखने वाले गुरण हैं और असादृश्य को मिलाने से ग्यारह व्यतिरेकी गुण क्रम से अध्यात्म के ज्ञाता विद्वानों के द्वारा जानने योग्य हैं ॥११६-११८।।
१ ससानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गी तस्या भावस्तत्त्वम् स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादास्तिनास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति अवक्तव्यं, स्यान्नास्तिप्रवक्तव्यं, स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यम् इत्येतेसप्तभङ्गाः।
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