Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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पञ्चदशः सर्गः
प्रथानुभवतस्तस्य चक्रवतिसुखामृतम् । भतु: 'शरत्सहस्राणि व्यतीयुः पञ्चविंशतिः ॥१॥ अन्यदा मतिमालम्ब्य समालम्बितसत्पथाम् । मोक्षमाणो निवृत्य स्वं संसृतेरित्यचिन्तयत् ॥२॥ प्रहो नु बालिशस्येव हिताहितविदोऽपि मे। व्यर्थ महीयसानापि कालेन सुखलिप्सया ॥३॥ स लोकान्तिकसंघेन ततो लोकैकनायकः । अनुजिज्ञासता बोधि प्रापे प्रस्ताववेदिना ॥४॥ भक्त्या नत्वा तमीशानं स देवयमिना गणः । ऊचे सरस्वती मामित्थं 'सारस्वतादिक ॥॥॥ 'पारिनि:क्रमणस्यायं कालस्ते नाथ वर्तते । अप्रबुद्धो हि संदिग्धे स्थेयो भव्यात्मनां भवान् ॥६॥
पञ्चदश सर्ग
अथानन्तर चक्रवर्ती के सुख रूपी अमृत का उपभोग करते हुए उन शान्तिप्रभु के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥१॥ किसी अन्य समय समीचीन मार्ग का अवलम्बन करने वाली बुद्धि का
आलम्बन कर वे शान्ति जिनेन्द्र संसार से निवृत्त हो अपने आप को मुक्त करने की इच्छा से इस प्रकार विचार करने लगे ॥२॥ अहो, बड़े आश्चर्य की बात है कि हित अहित का ज्ञाता होने पर भी अज्ञानी जन के समान मेरा बहुत बड़ा काल सुख प्राप्त करने की इच्छा से व्यर्थ ही व्यतीत हो गया ॥३॥ तदनन्तर लोक के अद्वितीय स्वामी शान्ति जिनेन्द्र, अवसर के ज्ञाता तथा विरक्ति के समर्थक लौकान्तिकदेवों के समूह द्वारा बोधि-रत्नत्रय को प्राप्त हुए ॥४॥ सारस्वतादिक देवषियों के समूह ने उन प्रभु को भक्ति पूर्वक नमस्कार कर इस प्रकार की अर्थपूर्ण वाणी कही ।।५।।
हे नाथ ! यह आपका गृह परित्याग का काल है क्योंकि अज्ञानी जीव ही संशय करता है आप तो भव्यजीवों में अग्रेसर हैं ।।६।। इस प्रकार प्रभु से इतनी वारणी कह कर लौकान्तिक देवों का
१ वर्षसहस्राणि २ देवर्षीणां-लौकान्तिकदेवानाम् ३ वाणीम् ४ अर्थादनपेताम् ५ 'सारस्वतादित्य वयरुणगदंतोयतुषिताव्यावाधारिष्टाश्च' इतिलौकान्तिक देव समूहः ६ दीक्षा धारणस्य ।
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