Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशांतिनाथपुराणम् प्रजासु कृतकृत्यासु निधोनामनुभावतः । जातासु मुमुदे नाथः परार्थनिरताशयः॥१२३॥ निरुद्धकरसंपातश्चचाद्भिः कटकध्वजैः । अवातरदथाकाशात्प्रेर्यमाण इवार्यमा' ॥१२४।। अनुरक्तमिवालोक्य भतु : २प्रकृतिमण्डलम् । चण्डांशुरचण्डतां त्यक्त्वा मण्डलं स्वमरक्षयत् ॥१२॥ शोमा सेनानिवेशस्य दिक्षुरिव भानुमान् । पश्चिमाद्रे शिरस्युच्चैः क्षणमात्रं व्यलम्बत ॥१२६॥ प्रतितोयाशयं भानो: प्रतिबिम्बमदृश्यत । गमायापृच्छमानं वा पपिनी प्लवकूजितः ॥१२७।। सहसवाम्बर त्यागस्तेजो हानिः सुरागता । वारुणो सेवनावस्था भास्वताप्यन्वभूयत ।।१२८॥ प्रत्यक्संप्रेरितस्याह्ना बन्येमेन महातरोः । दीर्घमूलरिवास्थायि भानोरुध्वंमभीषुभिः ॥१२६॥ यःप्राभूत्सूर्यकान्तेभ्यः स एवाग्निदिनात्यये। सूर्यकान्ता''निति व्यापत्कोका वाक्यच्छलादिव।१३०।।
था ऐसे शान्ति जिनेन्द्र निधियों के प्रभाव से प्रजा के कृतकृत्य होने पर हर्षित हो रहे थे ॥१२३॥
तदनन्तर जिन्होंने किरणों के संचार को रोक लिया था ऐसी फहराती हुई सेना की ध्वजाओं से प्रेरित होकर ही मानों सूर्य प्रकाश से नीचे उतरा अर्थात् अस्त होने के सन्मुख हुआ ॥१२४।। शान्ति जिनेन्द्र के प्रजामण्डल को अनुरक्त - लाल ( पक्षमें प्रेम से युक्त ) देखकर ही मानों सूर्य ने तीक्ष्णता को छोड़ कर अपने मण्डल-बिम्ब को अनुरक्त-लाल कर लिया था ।।१२५।। सेना निवास की शोभा को देखने के लिये इच्छुक होकर ही मानों सूर्य ने अस्ताचल की ऊंची शिखर पर क्षणभर का विलम्ब किया था ॥१२६।। प्रत्येक जलाशय में सूर्य का प्रतिबिम्ब ऐसा दिखायी देता था मानों वह तरङ्गों की ध्वनि के बहाने जाने के लिये कमलिनी से पूछ ही रहा हो-प्रेयसी से आज्ञा ही प्राप्त कर रहा हो ।।१२७॥ वारुणी-पश्चिम दिशा ( पक्ष में मदिरा) के सेवन से सूर्य ने भी शीघ्र ही अम्बर त्याग- आकाश त्याग ( पक्ष में वस्त्र त्याग ) तेजोहानि-प्रताप हानि ( पक्षमें प्रभावहानि ) और सुरागता–अत्यधिकलालिमा ( पक्षमें अत्यधिक प्रीति ) का अनुभव किया था । भावार्थ-जिसप्रकार मदिरा का सेवन करने से मनुष्य शीघ्र ही अम्बरत्याग, तेजोहानि और सुरागता को प्राप्त होता है उसी प्रकार पश्चिम दिशा का सेवन करने से सूर्य भी अम्बरत्याग-आकाशत्याग, तेजोहानिप्रतापहानि और सूरागता-अतिशय लालिमा को प्राप्त हया था ।।१२८।। जिसप्रकार जंगली हाथी के द्वारा उल्टे उखाडे हए महावक्ष की लम्बी लम्बी जडें ऊपर की ओर हो जाती हैं उसी प्रकार दिन के द्वारा पश्चिम दिशा में प्रेरित सूर्य की किरणें ऊपर की ओर रह गयी थीं। भावार्थ--अस्तोन्मुख सूर्य की किरणें ऊपर की ओर ही पड़ रही हैं नीचे की ओर नहीं ।।१२६।। जो अग्नि सूर्यकान्त मरिणयों से उत्पन्न हुयी थी वह सायंकाल के समय 'ये सूर्यकान्त हैं—सूर्यकान्त मरिण हैं ( पक्ष में सूर्य के प्रेमी हैं ) इस वाक्यच्छल से ही मानों चकवों को प्राप्त हुयी थी। भावार्थ-सूर्यास्त होने से चकवा चकवी परस्पर वियुक्त होकर शोकनिमग्न हो गये ॥१३०।। उस समय एक कमल वन ऐनी - सूर्य सम्बन्धी (पक्ष में
१ सूर्यः २ ममात्यादिवर्गम् ३ सूर्यः ४ तीक्ष्णतां ५ बिम्ब ६ गगनत्यागः पक्षे वस्त्रत्यागः ७ प्रतापहानिः, प्रभुत्वहानि: ८सुलोहितता, सुष्ठु रागसहितता, ६ पश्चिमदिशा, मदिरा च १० सूर्यकान्तमणिभ्यः ११ सूर्य: कान्सो येषां तान् १२ चक्रवाकान् ।
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