Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिमापपुराणम् पप्येवमादिकामन्यां स्थिति तस्मिन्वितन्वति । न मार्गोल्लनं चक राशि तुप्रजसः प्रजाः ।।२।। तस्यात्मानुगतोत्साहनिर्बन्धेनैव तोषितः । युबराजपदे वावरचक्रायुधमतिष्ठिपत् ॥२६॥ भर्तुः सप्रणयां दृष्टि तस्मिन्वीक्ष्य निरन्तरम् । तयोः प्राक्तनसम्बन्यो लोकेनाप्यनुमीयते ॥२७॥ भोगान्नि विरातस्तस्य पार्थिवस्याप्य पापिवान् । सांवरत्रिकयातीय: पञ्चकृत्या मिता समाः ॥२८॥ प्रथान्यदा समान्तःस्थंशान्तीशं शान्तविद्विषम् । इत्यानम्यायुधाध्यक्षो दिष्टचाविष्टो व्यजिज्ञपत् ॥२६॥ उदपादि प्रभो चक्रं स्फुरद्धापक्रमासुरम् । किं तेऽतिभास्करं बाम चक्रीभूय बहिःस्थितम् । ३०॥ जातमात्रस्य तेजातं त्रैलोक्यमपि किङ्करम् । तेन साध्या पधरेत्येषा पार्ताम्येष्वेव भद्रिका ॥३१॥ अन्तर्गतसहस्रारं स्वर्गान्तरमिवापरम् । सेव्यमानं सदा यक्षः कौबेरमिव तत्पदम् ॥३२॥ ययोक्तोरसेषसंयुक्तमपि प्रांशुतयान्वितम्। अपि प्रत्यक्षमाभाति विदूरोकृतविग्रहम् ॥३३।।
भ्रमण करना मेघ में ही था वहां के मनुष्यों में आशाभ्रमण-तृष्णा से भ्रमण करना नहीं था। मार्गणासन-धनुष धनुर्धारी के पास ही था वहां के मनुष्यों में याचना का आश्रय नहीं था। पांसुला क्रीड़ा-धूलि उछालने की क्रीड़ा हायी में ही थी वहां के मनुष्यों में पापपूर्ण क्रीड़ा नहीं थी। भिदाफूट जाना घड़े में ही दिखाई देता था वहां के मनुष्यों में भिदा-भेदनीति नहीं दिखायी देती थी ॥२४।। इस प्रकार जब राजा शान्तिनाथ पूर्वोक्त स्थिति को आदि लेकर अन्य स्थिति-विभिन्न शासन पद्धति को विस्तृत कर रहे थे तब उत्तम संतान से युक्त प्रजा मार्ग का उल्लङ्घन नहीं करती थी।२५।। राजा विश्वसेन ने शान्तिनाथ के स्वकीय उत्साह तथा आग्रह से ही संतुष्ट हो कर चक्रायुध को युवराज पद पर अधिष्ठित किया ॥२६।। चक्रायुध पर शान्तिनाथ भगवान् की निरन्तर स्नेह पूर्ण दृष्टि रहती है यह देख लोग भी यह अनुमान करते थे कि इन दोनों का पूर्व भव का सम्बन्ध है ॥२७।। इस प्रकार पार्थिव-पृथिवी के होकर भी अपार्थिव-देवोपनीत स्वर्गीय भोगों को भोगते हुए शान्तिनाथ भगवान् के समभाव से पच्चीस वर्ष व्यतीत हो गये ।।२८।।
___अथानन्तर किसी अन्य दिन शत्ररहित शान्तिनाथ भगवान् सभा के बीच में विराजमान थे उसी समय शस्त्रों के अध्यक्ष ने बड़ी प्रसन्नता से नमस्कार कर यह सूचना दी ॥२६॥ कि हे प्रभो ! फैलती हुई कान्ति के समूह से देदीप्यमान चक्र रत्न उत्पन्न हुआ है और उसे देख ऐसा संशय होता है कि सूर्य को पराजित करने वाला आपका तेज ही क्या चक्र होकर बाहर स्थित हो गया है ॥३०॥
आपके उत्पन्न होते ही तीनों लोक किंकर हो गए थे अत: उस चक्ररत्न के द्वारा पृथिवी वश में की जायगी । यह कथा तो दूसरे लोगों के लिए ही भली मालुम होती है ।।३१॥ वह चक्र अन्य स्वर्ग के समान है क्योंकि जिस प्रकार अन्य स्वर्ग अन्तर्गत सहस्रारं सहस्रार नामक स्वर्ग को अपने अन्तर्गत किये हुए है उसी प्रकार वह चक्र भी हजार अरों को अपने अन्तर्गत किए हुए है। अथवा वह चक्र कुबेर के स्थान के समान है क्योंकि जिस प्रकार कुबेर के स्थान की सदा यक्ष सेवा किया करते हैं उसी प्रकार उस चक्र की भी यक्ष सदा सेवा किया करते हैं ॥३२।। वह यथोक्त ऊंचाई से संयुक्त होने पर भी प्रांशुतया-प्रकृष्ट किरणावली से सहित है तथा विदूरीकृत विग्रह-शरीर से रहित होने पर
१ भुक्तवत. २ स्वर्गसम्बन्धिनः ३ वर्षाणि ४ वशीकरणीया ५ पृथिवी ।
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