Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्री शान्तिनाथपुराणम्
'farriagनिक्वाः किन्नराणां निरन्तरैः । द्यौ रातोद्यमयोवा भून्नृत्यैश्चाप्सरसांक्वचित् ॥ १४२ ।। चित्ररूपैरिव व्योम्नि स्फुरमाणैरितस्ततः । प्रमथैः पप्रथे क्रीडा वल्गनक्ष्वेलनादिका ॥ १४३ ॥ गन्धर्वैरिव " गन्धर्वैर्षाविमानैरपि द्रुतम् । प्रविनष्टक्रियास्थानं चित्रं तस्योज्जगे यशः ॥ १४४ ॥ क्षरणादिव ततः प्रापे सुमेरुस्तैः सुरेश्वरैः । जम्बूद्वीपसरोजस्य करणका कृतिमुद्वहन् ।। १४५।। तस्यापि शैलनाथस्य ते शिलां पाण्डु 'कम्बलाम्। प्रापुश्चन्द्रकलाकारां तत्पूर्वोत्तर दिग्भवाम् ।। १४६ । । तस्याः सिंहासने पूर्व तं निधाय यथागमम् । इत्थमारेभिरे भक्त्या तेऽभिषेक्तुं सुरेश्वराः ।। १४७।। तस्मादारभ्य शैलेन्द्रादाक्षीरोदं सुरेश्वराः । धृतरत्नघटाः केचित्परिपाटयावतस्थिरे ।। १४८ ।। सामानिकास्ततः सर्वे भूत्वा मङ्गलपाठकाः । तं तस्थुः परिलो दूरात्समं भवनवासिभिः ॥ १४६ ॥ नान्दीप्रभृतितूर्याणि वादयन्तः समन्ततः । ज्योतिष्कव्यन्तराधीशाः प्रादुरासन्महौजसः ।। १५० ।। वपुर्मनोज्ञमादाय 'सहस्रकरशोभितम् । सौधर्मः स्नापको सूत्वा तस्थौ तस्य पुरः प्रभोः ।। १५१ ।। त्रिजगत्पति नामाङ्क त्रिजगद्दण्डकं क्रमात् । उच्चार्य मधुर स्निग्धगम्भीरस्वरसंपदा ।। १५२ ।।
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वादन से तन्मय जैसा हो गया था ।। १४२ ।। आकाश में इधर उधर देदीप्यमान होने से जो नाना रूप के धारक जान पड़ते थे ऐसे प्रमथ ( व्यन्तर के भेद - विशेष) देवों ने उछल कूद आदि नाना प्रकार के खेल प्रकट किये ।। १४३ ।। घोड़ों के समान शीघ्र दौड़ते हुए भी गन्धर्व देवों ने जिनराज का वह यश उच्च स्वर गाया था जिसमें क्रिया – करण - नृत्य मुद्राएं आदि नष्ट बात थी ।। १४४ ।।
नहीं हुई थीं, यह आश्चर्य की
तदनन्तर उन इन्द्रों ने जम्बूद्वीप रूपी कमल की करिणका की आकृति को धारण करने वाला सुमेरु पर्वत मानों क्षणभर में प्राप्त कर लिया ।। १४५ ।। उस सुमेरु पर्वत की ऐशान दिशा में स्थित चन्द्र कला के आकार वाली पाण्डुकम्बला नामक शिला को भी वे इन्द्र प्राप्त हुए ।। १४६ ।। उस पाण्डुकम्बला शिला के सिंहासन पर पहले आगमानु उन जिनराज को विराजमान कर इन्द्र भक्ति पूर्वक इस प्रकार अभिषेक करने के लिए तत्पर हुए ।। १४७ ।। रत्नमय कलशों को धारण करने वाले कितने ही इन्द्र उस सुमेरु पर्वत से लेकर क्षीर समुद्र तक पंक्तिरूप से खड़े हो गये ।। १४८ ।। तदनन्तर मङ्गल पाठ पढ़ने वाले समस्त सामानिक देव उन जिनराज के चारों ओर भवन वासी देवों के साथ दूर खड़े हो गये ।। १४६ ।। नान्दी आदि वादित्रों को बजाते हुए महा-तेजस्वी ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों के इन्द्र चारों ओर खड़े हुए ।। १५० ।। सौधर्मेन्द्र हजार हाथों से सुशोभित सुन्दर शरीर लेकर स्नपन करने वाला बन उन जिनराज के आगे खड़ा हो गया ।। १५१ ।।
तदनन्तर मधुर स्निग्ध और गम्भीर स्वर से क्रमपूर्वक त्रिलोकीनाथ के नामों से अङ्कित त्रिजगदण्डक का उच्चारण कर इन्द्र ने पहले ऋचाओं और हजारों मन्त्रों का भी अच्छी तरह
१ वीणा २ नृत्यगायनवादनमयीव ३ देवविशेषैः ४ आर्श्वरिव ५ देवविशेषरिव ६ एतन्नामधेयाम् ७ ऐशानदि विस्थताम् सहस्रहस्त शोभितम् ।
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