Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur

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Page 228
________________ १८३ त्रयोदशः सर्गः तेजोवलयमध्यस्थैरङ्गरव्यप्रकान्तिभिः । अवाणमुपमातीतं स्वयं स्वमिव सर्वतः ॥१३३।। एकति त्रिधा भिन्नममानुषसमुद्भवम् । 'प्रभवं सर्वविद्यानामविचिन्त्य मजारमकम् ॥१४॥ लोकातीतगुणोपेतमपि लोकैकनायकम् । मध्यर्भकं हृदि न्यस्तसमस्तभुवनस्थितम् ॥१३॥ (चतुभिःकलापकम्) मायाकं निवेश्याथ तन्मातुः पुरतो हराि। प्रपाहरत्तमीशानं कः कार्यापेक्षया शुचिः ।।१३६।। तं निधाय ततः स्कन्धे "सिन्धुरेन्द्रस्य बन्धुरे । प्रारब्धेति वृषा गन्तुमभिमेह' विहायसा' ।।१३७॥ तन्मज्जनार्थमायात क्षीरोदारेकया सुरैः । वीक्ष्यमाणं सितच्छत्रं तस्यैशान स्तवावहत् ॥१३८।। सनत्कुमारमाहेन्द्रौ लोलाकम्पितचामरौ । तस्य पक्षगजारूढौ शोभा कामप्यवापतुः ।।१३६।। इन्द्राण्यः पुरतस्तेषां करिणीमिः प्रतस्थिरे। ललन्त्यो लीलयोत्क्षिप्तरत्क्षेपादिकमङ्गलः ॥१४०।। व्यजम्भत ततो मन्द्रं दिव्यदुन्दुभिनिस्स्वनः । दिग्भित्तिस्खलनोभूतस्वप्रतिध्वानवद्धितः ।।१४१॥ युक्त अङ्गों के द्वारा स्वयं ही अपने आप को सब ओर से उपमा रहित-अनुपम कह रहे थे, जो एक मूर्ति होकर भी तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव के भेद से तीन प्रकार से विभक्त थे, जिनका लोकोत्तर जन्म था, जो समस्त विद्याओं के कारण थे, अचिन्तनीय थे और जिनकी आत्मा जन्म से रहित थी, जो लोकातीत गुणों से सहित होने पर भी लोक के अद्वितीय नायक थे और बालक होने पर भी जिनके हृत्य में समस्त लोक स्थित था ॥१३२-१३५।। ___ तदनन्तर इन्द्र ने उनकी माता के आगे मायामय बालक रखकर उन जिनराज को उठा लिया सो ठीक ही है क्योंकि कार्य की अपेक्षा पवित्र कौन है ? अर्थात् कार्य सिद्ध करने के लिए सभी माया का प्रयोग करते हैं ।।१३६॥ तदनन्तर गजराज-ऐरावत हाथी के सुन्दर स्कन्ध पर उन जिनराज को विराजमान कर इन्द्र आकाश मार्ग से मेरु की ओर चला ।।१३७।। उस समय ऐशानेन्द्र ने जिनराज के ऊपर वह सफेद छत्र लगा रक्खा था। जिसे देव लोग उनके जन्माभिषेक के लिए आये हए क्षीरसमुद्र की शङ्का से देख रहे थे ॥१३८॥ जिनराज के दोनों ओर हाथियों पर आरूढ तथा लीलापूर्वक चमरों को चलाते हुए सानत्कुमार और माहेन्द्र किसी अनिर्वचनीय शोभा को प्राप्त हो रहे थे ।।१३६।। जो लीलापूर्वक ऊपर उठाये हुए ठौना आदि मङ्गल द्रव्यों से सुशोभित हो रही थीं ऐसी इन्द्रारिणयां उन इन्द्रों के आगे हस्तिनियों पर सवार होकर जा रही थीं ॥१४०।। तदनन्तर दिशा रूपी दीवालों में टकराने से उत्पन्न अपनी प्रतिध्वनि से बढ़ा हुआ देवदुन्दुभियों का शब्द गम्भीर रूप से वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥१४१।। कहीं आकाश किन्नरों की वीणा और बांसुरी के निरन्तर शब्दों तथा अप्सराओं के नृत्यों से आतोद्यमय-नृत्य गायन और १ कारणं २ अजः अग्रिमपर्यायेजन्मरहित आत्मा मस्य तम् ३ मायामयबालकं ४ इन्द्रः ५ जिन बालकम् ६ पवित्रो-माया रहित इत्यर्थः ७ बजराजस्य ८ इन्द्रः ६ मेरुसन्मुखं १० वगनेन । आगत क्षीर समुद्र शङ्कया १२ ऐशानेन्द्रः १३ गंभौरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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