Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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त्रयोदशः सर्गः:
१८५ ऋचः पुरा समुच्चार्य मन्त्रानपि सहस्रशः । दूर्वायवाक्षतकुशैविधिना तं व्यवर्षयत् ।।१५३।। इन्द्राणीहस्तसंप्राप्त क्षीरोदजसपूरितम् । धृत्वा घटसहन तैः सहस्र रपि बाहुभिः ॥१५४।। दृश्यमानं वृषा वैविस्मयात्तमथा कम्' । सममभ्यषिचन्नाथं सहस्रघटवारिमिः ॥१५५।। तस्याभिषेकमालोक्य क्रान्तत्रैलोक्यवैभवम् । तन्महत्तेति २गीरिणरभ्यपायि परस्परम् ।।१५६।। केमाप्यविधतः पाचावेष सिंहासनं शिशुः। महीयोऽप्यात्मतेजोभिः विधायवाधितिष्ठति ।।१५७॥ अस्य देहरुचा भिन्नं करिणकारसमत्विषा । स्नानादापिञ्जरीभूय क्षीरवार्यपि धावति ॥१५॥ काक्षेसोभयतः पश्यंचामराम्येव लीलया । देवेन्द्रानाविशन्नन्तः किमपोवावभासते ।।१५६।। अनुनाध्यासितो मे मनः यिो इदमेव महच्चित्रं महतामपि वर्तते ॥१६०॥ अप्यसंस्पृशतोरस्य पादयोः पादपीठकम् । चित्रं नरवमरिणज्योत्स्ना सुरमौलिषु लक्ष्यते ॥१६१।। 'पृथुकत्वमथाम्वर्थमस्येव भुवि दृश्यते । मातुर्गर्भगतेनापि येनाकान्तं जगत्त्रयम् ॥१६२॥ नेत्रा भव्यसमूहानां नेत्रानन्दकरं वपुः । अनेन साध्वभार्येव किमन्येनाप्यनेनसा ॥१६३॥ न रोदिति वियुक्तोऽपि मात्रा धैर्यनिधिः परम् । वेवयन्निव लोकेभ्यो वेदत्रितयमात्मनः॥१६४।।
उच्चारण किया । पश्चात् दूर्वा, जौ, अक्षत और कुशा के द्वारा विधिपूर्वक उनका वर्धापन–प्रारती आदि के द्वारा मङ्गलाचार किया ।।१५२-१५३।। पश्चात् इन्द्र ने इन्द्राणी के हाथ से दिये, क्षीर समुद्र के जल से भरे हजार कलशों को अपने हजार भुजाओं से लेकर हजार कलशों के जल से जिन बालक का अभिषेक किया। भगवान् के इस अभिषेक को देव बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे थे ॥१५४-१५५। तीन लोक के वैभव को आक्रान्त करने वाले उनके उस अभिषेक को देखकर देव परस्पर उनकी महिमा को इस प्रकार कह रहे थे ॥१५६।। देखो यह बालक पीछे से किसी के पकड़े बिना ही अपने तेज से विशाल सिंहासन को आच्छादित कर बैठा हुआ है ॥१५७॥ कनेर के फूल के समान कान्ति वाली इनकी शरीर सम्बन्धी प्रभा से मिश्रित क्षीर जल भी अभिषेक से पीला पीला होकर बह रहा है ॥१५८॥ बगल से दोनों ओर लीलापूर्वक चमरों को देखता हुआ यह बालक सुशोभित हो रहा है मानों मन ही मन इन्द्रों को कुछ आदेश दे रहा हो ॥१५६।। यह मेरु पर्वत पृथिवीमय होकर भी इनसे अधिष्ठित होकर पवित्र हो गया है बड़े बड़े लोगों को भी यही सबसे बड़ा आश्चर्य हो रहा है ।।१६०।। यद्यपि इनके चरण पादपीठ का स्पर्श नहीं कर रहे हैं तो भी इनके नख रूपी मरिणयों की चांदनी देवों के मुकुटों पर दिखायी दे रही है यह आश्चर्य है ।।१६०॥ पृथिवी पर इसी का पृथुकत्व-बालकत्व पक्ष में विपुलत्व सार्थक दिखायी देता है जिसने माता के गर्भ में स्थित रहते हए भी तीन जगत को आक्रान्त कर लिया था ॥१६२।। भव्यसमूह के नेता स्वरूप इस जिन बालक के द्वारा ही नेत्रों को आनन्द देने वाला उत्तम शरीर धारण किया गया है निष्कलंक होने पर भी अन्य पुरुष से क्या प्रयोजन है ? ॥१६३।। अतिशय धैर्य का भण्डार स्वरूप यह बालक माता से
लक ऐसा
शिशुत्वं,
१ जिनबासकम् २ देवैः ३ अतिशयेन महत् ४ पवित्र: ५ पृथिवी सम्बन्धी, विपुलत्वम् ७ साधु + अभारि+एव इतिच्छेदः ८ ज्ञानत्रयम् ।
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