Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् वोततृष्णतयाहारं नाभिलष्यति केवलम् । लोकानुग्रहबुद्धधास्ते बद्ध्वा पर्यङ्कमखासा ॥१६५।। इत्येवमादिकं केचिदभिषायानमन्सुराः । पारिणभिः कुड्मलीभूतैर्मनोभिश्च विकासिमिः ॥१६६॥ अभिषेकावसानेऽथ समभ्यक्षतादिभिः। शक्रः प्रववृते स्तोतुमिति स्तुतिविशारदः ॥१६७॥ नमः प्रभवते तुभ्यं स्तुवतां पापशान्तये। नि शेषोत्तीर्णसंसारसिन्धवे भव्यबन्धवे ॥१६८॥ तब वनमयः कायो मिरपाय: प्रकाशते। करणारसनिष्यन्दिः येतश्चेत्यतिकौतुकम् ॥१६६।। दूराभ्यर्णचराणां त्वं सेवकानामनुत्तमाम् । विभूतिमुचितज्ञोऽपि निविशेषं विशस्यहो ॥१७०॥ 'उद्भवस्तव भव्यानां प्रबोधायेव केवलम् । यथेन्दोरवदातस्यकुमुदानां जलात्मनाम् ॥१७१।। प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । प्रनोऽपि लोकानामुपकारकः ।।१७२।। किङ्करा सकलो लोक: किकरः सशरासनः। प्रत्यद्भुतमिदं पुण्यं तवैव बत दृश्यते ॥१७३॥ प्राभितानां भवावासस्त्वया किमिति भज्यते । प्रतिषीरस्य ते युक्तं किमिदं शिशुचापलम् ॥१७४॥
वियुक्त होकर भी नहीं रो रहा है। ऐसा जान पड़ता है मानों यह लोगों के लिए अपने तीन ज्ञानों की सूचना ही दे रहा हो ॥१६४।। तृष्णा से रहित होने के कारण यह आहार की इच्छा नहीं कर रहा है मात्र लोकोपकार की बुद्धि से अच्छी तरह पर्यङ्कासन बांध कर बैठा है ।।१६५।। इत्यादि वचन कह कर कितने ही देवों ने कुड्मलाकार-अञ्जलि बद्ध हाथों से तथा विकसित मनों से जिनराज को नमस्कार किया ।। १६६॥
तदनन्तर अभिषेक समाप्त होने पर अक्षत आदि से पूजा कर स्तुति में निपुण इन्द्र इसप्रकार स्तति करने के लिये प्रवत्त हा ॥१६७॥ जो लोकोत्तर प्रभाव से सहित हैं, स्तुति करने वालों के पाप शान्त करने वाले हैं, जिन्होंने संसार रूपी समुद्र को संपूर्णरूप से पार कर लिया है तथा जो भव्यजीवों के बन्धु हैं ऐसे आपके लिये नमस्कार हो ।।१६८॥ हे प्रभो ! रोगादि की बाधा से रहित आपका शरीर तो वज्रमय प्रकाशित हो रहा है और चित्त करुणारस को झरा रहा है यह बड़े कौतुक की बात है ॥१६६॥ हे भगवान् ! आप उचित के ज्ञाता होकर भी दूरवर्ती तथा निकटवर्ती सेवकों के लिये समानरूप से उत्कृष्ट विभूति को प्रदान करते हैं यह आश्चर्य की बात है ।।१७०॥ जिसप्रकार निर्मल चन्द्रमा का उदय जलरूप कुमुदों के विकास के लिये होता है उसीप्रकार प्रापका जन्म केवल जड़बुद्धि-अज्ञानी भव्यजीवों के प्रबोध-प्रकृष्ट ज्ञान के लिये हुआ है ।।१७१॥ प्रयोजन का उद्देश्य किये बिना मन्दबुद्धि भी कोई कार्य नहीं करता है परन्तु आप प्रबुद्ध-ज्ञान सम्पन्न होकर भी किसी अपेक्षा के बिना ही लोकों का उपकार करते हैं ॥१७२।। समस्त संसार आपका सेवक है और धनुष लेकर क्या करू' इस प्रकार प्राज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा है। हर्ष है कि यह अत्यधिक आश्चर्यकारी पुण्य आपका ही दिखाई देता है ।।१७३।। आश्रित मनुष्यों का भवावास आपके द्वारा क्यों भग्न किया जाता है ? अत्यन्त धीर वीर अापकी यह बालकों जैसी चपलता क्या ठीक है ? ।।१७४।। जिस
२ उज्ज्वलस्य
३ जडात्मनाम्
४ मूर्योऽपि
५ प्रत्युपकार भावनारहित एव,
१ जन्म ६ ज्ञानी अपि ।
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