Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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१-२
श्री शान्तिनाथपुराणम्
दूरादुतीयं यानेभ्यः स्वं निवेद्य महीभुजे । इन्द्रः प्रविविशे भूभृन्मन्दिरं 'मन्दरोपमम् ॥ १२३rr पुरेव सिक्तसंमृष्टं केश्चिदन्तहितात्मभिः । गायकैः किन्नरैः कीर्णैः प्रग्रीवैरुपशोभितम् ।।१२४ ।। क्वचिद्रत्न विटङ्कानां विबुधैरुपरिस्थितैः । वीक्ष्यमाणैर्मुदा नृत्तेः प्रवृतं राजिता जिरम् ।। १२५ । safer प्रवेदीषु सामन्तलीलया स्थितैः । सुरिवापरैर्यु कमत्यद्भुतविभूतिभिः ।। १२६ । । क्वचिन्मुक्ता कला पौधेश्चन्द्रांशुभिरिवाततम् । धन्यत्र • विमालोकैवलातपदलैरिव ॥१२७॥ चिन्मुरज निस्वानप्रहृष्ट शिखिकेकितैः । जिनजन्माभिषेकाय मेघानुच्चैरिवाह्वयत् ।। १२८ ॥ क्वचिद्रङ्गावलोन्यस्तनानारत्नप्रभोत्करैः । स्फुरद्भिः सर्वतो व्योम सेन्द्रायुधमिवावधत् ।। १२६ ।। सर्वभव्य प्रजापुण्यनिमितं वा मनोरमम् । सुरेन्द्रैर्ददृशे तत्र जिम जन्मगृहं मुदा ॥ १३०॥ ( सप्तभि: कुलकम् ) fear परीत्य तत्पूर्व भक्त्या नमितमौलयः । शकाः प्रविविशुः "पस्स्यमालोक्य मुखराननाः ।। १३१॥ प्रवेक्षन्त सुरेन्द्रास्तं जातमात्रं जिनेश्वरम् । महिम्ना 'क्रान्तलोकान्तमपि मातुः पुरः स्थितम् ।। १३२ ।।
इन्द्रादिक देवों ने दूर से ही वाहनों से उतर कर तथा राजा के लिए अपना परिचय देकर मेरुतुल्य राजभवन में प्रवेश किया ।। १२३ ।। अन्तर्हित रूप वाले कितने ही देवों ने जिसे पहले ही सींच कर साफ कर लिया था, जो फैले हुए सुन्दर कण्ठ वाले किन्नर गवैयों से सुशोभित था, जो कहीं रत्नमय छज्जों के ऊपर स्थित देवों के द्वारा देखे जाने वाले हर्ष से प्रवृत्त नृत्यों से सुशोभित प्रांगन से सहित था अर्थात् जिसके प्रांगन में नृत्य हो रहा था और देव लोग उसे छज्जों पर बैठकर देख रहे थे, जो कहीं देहरी की समीपवर्ती वेदिकाओं पर लीलापूर्वक बैठे हुए आश्चर्यकारक विभूति वाले उन सामन्तों से युक्त था जो दूसरे देवों के समान जान पड़ते थे, जो कहीं मोतियों के समूह से युक्त होने के कारण ऐसा जान पड़ता था मानों चन्द्रमा की किरणों से ही व्याप्त हो और कहीं मूंगाओं के प्रकाश से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों प्रातः काल के लाल लाल प्रातप खण्डों से ही युक्त हो, जो कहीं मृदंगों के शब्द से हर्षित मयूरों की केकावारणी से ऐसा जान पड़ता था मानों जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक के लिए मेघों को ही बुला रहा हो, जो कहीं रङ्गावली (रांगोली) में रखे हुए नाना रत्नों की देदीप्यमान प्रभावों के समूह से प्रकाश को सभी ओर इन्द्र धनुषों से युक्त करता हुआ सा जान पड़ता था, तथा जो समस्त भव्य प्रजा के पुण्यों से रचे हुए के समान मनोहर था ऐसे जिन जन्मगृह को वहां देवों ने बड़े हर्ष से देखा ।। १२४-१३०।। उस जन्मगृह को देखकर जिनके मुकुट भक्ति से भुक गये थे तथा मुख स्तोत्रों से शब्दायमान हो उठे थे ऐसे इन्द्रों ने पहले तीन प्रदक्षिणाएं देकर पश्चात् उस गृह में प्रवेश किया ।। १३१ ।।
तदनन्तर इन्द्रों ने उत्पन्न हुए उन जिनराज को देखा जो महिमा के द्वारा लोकान्त को व्याप्त करने वाले होकर भी माता के आगे स्थित थे, जो प्रभामण्डल के मध्य में स्थित तथा सुखद कान्ति से
१ मेरुसदृशम् २ शोभिताङ्गणम्
३ देहलीसमीपवर्तिवेदिकासु
६ महिम्ना आक्रान्तो लोकान्तो येन तथाभूतमपि शरीरेण मातु र विद्यमानम् ।
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४ प्रवाल प्रकाशैः
५ भवनं
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