Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
त्रयोदशः सर्गः
१७७ वियन्महडिकी कोणं तत्काले विबुधाधिपः । अमूर्तमपि पुण्यस्य कोतिस्तम्भत्वमाययौ ॥६८।। प्रादातु दिविजामोदमुद्भिरलिना' कुलः । पापरुन्मुच्यमानेव: सर्वतोऽप्यमवद्धरा ।।६।। इति तत्पुरमासाद्य सखः सर्वे सुरेश्वराः । २ऐरामभ्यर्य तेऽभ्यामवापुः स्वपवं पुनः॥७०॥ विष्टिवृद्धिस्ततोऽकारि पुनरुक्तापि नागरैः । प्रमरैः स्पर्द्ध येवोच्चैः स्फुरितात्मविभूतिभिः ॥७१।। स्पर्खया रत्नवृष्टयव निपतन्या विहायसः । महारत्ननिधानानि तवा निरगमन्भुवः ॥७२॥ धर्मपल्लवनीकाशैः सौधानां धवलध्वजः । छादितं गगनं रेजे तद्यशःपटलैरिव ।।७३॥ गर्भस्थस्यानुभावेन तामन्येत्य धनाधिपः । उपास्त प्रत्यहं प्रीत्या स्वहस्तविधृतोपदः ॥७४॥ ज्ञानत्रितयसंपन्नो मलरनुपमंप्लुतः । अतो हिरण्यगर्भोऽभून्मातुर्गर्भगतोऽपि सः ॥७॥ न जातु पीडयन्नम्बामङ्ग रेव समुज्ज्वलः । ववृषे प्रत्यहं देवो नासो ज्ञानादिभिर्गुणः ।।७६॥ दधाना तेजसां राशि गर्भस्थं सा विविध ते । द्यौरिवाभ्र दलान्तस्थस्फुरद्धालदिवाकरा ॥७॥ वोतसांसारिकक्लेशमधात्सा परमेश्वरम् । गर्मोन्माथाः कथं तस्या भवेयुदोहृदावयः ॥७॥
पर भी पुण्य के कीर्तिस्तम्भपने को प्राप्त हुआ था अर्थात् ऐसा जान पड़ता था मानों पुण्य का कीतिस्तम्भ ही हो ॥६८।। दिव्य गन्ध को ग्रहण करने के लिये उड़ते हुए भ्रमरों से पृथिवी ऐसी हो गयी थी मानों सभी ओर से पापों के द्वारा छोड़ी जा रही हो ॥६६।। इस प्रकार के उस नगर को शीघ्र ही प्राप्त कर उन देवेन्द्रों ने पूजनीय ऐरा देवी की पूजा की और पूजा कर पुनः अपने अपने स्थानों को प्राप्त किया ॥७॥
तदनन्तर देवों के साथ स्पर्धा होने के कारण ही मानों अत्यधिक रूप से अपनी विभूति को प्रकट करने वाले नागरिक जनों ने पुनरुक्त होने पर भी भाग्यवृद्धि की थी ।।७१।। आकाश से पड़ने वाली रत्नवृष्टि से स्पर्धा होने के कारण ही मानों उस समय पृथिवी से महारत्नों के खजाने निकले थे ॥७२॥ महलों के ऊपर फहराने वाली, धर्म पल्लवों के समान सफेद ध्वजारों से आच्छादित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों गर्भस्थ बालक के यशः समूह से ही आच्छादित हो रहा हो ॥७३॥ गर्भस्थित जिन बालक के प्रभाव से कुबेर प्रतिदिन ऐरा देवी के संमुख आकर प्रीति पूर्वक अपने हाथ से भेंट देता हुआ उसकी उपासना करता था ।।७४॥ यतश्च वह बालक माता के गर्भ में स्थित होने पर भी तीन ज्ञानों से सहित तथा मल से अनुपद्र त था इसलिये हिरण्यगर्भ हा था ॥७॥ माता को कभी पीड़ा न पहुंचाते हुए वह गर्भस्थ जिनेन्द्र अतिशय उज्ज्वल अङ्गों के द्वारा ही वृद्धि को प्राप्त नहीं हो रहे थे किन्तु ज्ञानादि गुणों के द्वारा भी वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे।।७६।। गर्भस्थित तेज की राशि को धारण करती हुई वह जिनमाता उस आकाश के समान सुशोभित हो रही थी जिसके मेघदल के भीतर स्थित बाल सूर्य देदीप्यमान हो रहा था ।।७७॥ क्योंकि वह संसार सम्बन्धी क्लेशों से रहित परमेश्वर को धारण कर रही थी इसलिये उसके गर्भ को पीड़ा देने वाले दोहले आदि कैसे हो सकते
१ अलिन् शब्दस्य षष्ठी बहुवचनान्तप्रयोगः २ जिनमातरम् ३ पूजयित्वा : ४ पूजनीयाम् ५ स्वपाणिसमर्पितोपहारः ६ मेघखण्डमध्यस्थदेदीप्यमानबालसूर्या ७ गर्भपीडका।। .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org