Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्री शान्तिनाथपुराणम्
'अन्तः स्थितस्य तेजोभिः स्फुरद्भिः सा बहिबंभौ । रत्नोघस्येव मञ्जूषा 'शुभ्राभ्रकदले. कृता ॥७६॥ बभूव सेव सर्वेषां मङ्गलानां सुमङ्गलम् । बिभ्रती तादृशं पुत्रमन्तर्लोकैकमङ्गलम् ॥८०॥ | अथैरायाः स्वमाहात्म्यात्स प्रामुज्जगतां पतिः । ज्येष्ठासितचतुर्दश्यां भरण्यामुषसि स्वयम् ॥८१॥ तीर्थकृन्नामकर्मद्ध देवीनां चातिपालनात् । स्वपुण्यातिशयाeart रूपातिशययोगतः ॥ ८२॥ सर्वलक्षणसं पूर्णस्तेजसातीत भास्करः । महोत्साहबल: श्रीमांस्त्रिज्ञानाध्यासितस्तथा ||८३|| वर्षधत बालाभो जातमात्रोऽपि राजते । 'जिनाधीशोऽमरव्रात ' नेवचेतो हरोऽनघः ॥ ८४ ॥ महाभिषेकमोग्याङ्गो धीरो मीतिविवजितः । बालोऽप्यबाल चरितों जनानभिभवाकृतिः ॥ ६५ ॥ त्रिजगत्स्वामितां स्वस्य ब्रुवाणः स्वेन तेजसा । महानुभावसंपन्नो दिव्यमयपमः सुवाक् ॥ ८६ ॥ ततो विबुधानां तस्मिञ्ज ते 'महौजसि । चित्तैः सिहासनान्युच्चैः सहसैवाञ्चकम्पिरे ॥ ८७॥ सौधर्मस्थान 'वावेन घण्टाटङ्कारवोदिताः । इत्थमारेभिरे गन्तु तत्पुरं कल्पवासिनः ||८|| एक: प्रियांस संसक्तं बामबाहु कथंचन । प्राकृष्योदगमद्गन्तुं विघृतोऽपि तया मुहुः ।।८।।
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थे ? ।।७८।। भीतर स्थित जिनबालक के, बाहर देदीप्यमान तेज से वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों सफेद भोडल के खण्डों से निर्मित रत्न समूह की मञ्जूषा ही हो ।। ७६ ।। लोक के अद्वितीय मङ्गलस्वरूप वैसे पुत्र को भीतर धारण करती हुई वह जिनमाता ही समस्त मङ्गलों में उत्तम मङ्गल हुई थी ||८०||
अथानन्तर ऐरा देवी के अपने माहात्म्य से वह त्रिलोकीनाथ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल के समय भरणी नक्षत्र में स्वयं उत्पन्न हुए ||८१॥ तीर्थकर नाम कर्म की महिमा से, देवियों के अतिशय पालन से, स्वकीय पुण्य के अतिशय से तथा श्रेष्ठ रूप के योग से जो समस्त लक्षणों से परिपूर्ण थे, जिन्होंने तेज से सूर्य को उल्लंघित कर दिया था, जो महान् उत्साह और बल से सहित थे, श्रीमान् थे, तीन ज्ञानों से सहित थे, जो उत्पन्न होते ही एक वर्ष के बालक के समान थे, देव समूह के नेत्र और मन को हरने वाले थे, निष्पाप थे, जिनका शरीर महाभिषेक के योग्य था, जो धीर थे, भयसे रहित थे, बालक होने पर भी अबालको चित चरित्र से युक्त थे, जिनकी आकृति मनुष्यों के द्वारा अनभिभवनीय थी, जो अपने तेज के द्वारा अपने आपके तीनों जगत् के स्वामी पने को प्रकट कर रहे थे, महानुभाव से सहित थे, दिव्य मनुष्यों के तुल्य थे तथा सुन्दर वचन बोलने वाले थे ऐसे वह जिनराज अत्यंत सुशोभित हो रहे थे ।। ८२-८६ ।।
तदनन्तर उन महाप्रतापी जिनेन्द्र भगवान् के उत्पन्न होने पर इन्द्रों के उच्च सिंहासन उनके चित्तों के साथ सहसा ही कांपने लगे || ८७|| सौधर्मेन्द्र के ग्राह्वान से घण्टा की टंकार से प्रेरित हुए कल्पवासी देव इसप्रकार उस नगर को जाने के लिये तत्पर हुए ||८८ || कोई एक देव प्रिया के कन्धे पर रक्खे हुए वाम वाहु को किसी तरह खींच कर उसके द्वारा बारबार रोके जाने पर भी चलने के
१ शुभ्राणि शुक्लानि यानि अभ्रकदलानि 'भोडल' इति प्रसिद्धवस्तु खण्डानि तै: २ एकवर्षीयबालकसदृश: ३ देवसमूहनयनमनोहरः ४ शोभनवाणीकः ५ इन्द्राणो ६ महाप्रतापे ७ आह्वानेन ।
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