Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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त्रयोदशः सर्गः
१७६ रामां मनोरमां कश्चिदल्लकी' वा कलस्वनाम् । भर्तृतः शङ्कमानोऽपि चिराद ङ्कानिराकरोत ॥१०॥ अपरः। 'स्ववधूलास्यप्रेक्षाव्याक्षिप्तमानसः । तत्संगीतकमेवाने विधायोबचलद्गृहात् ॥१॥ मप्यन्यो गमनायांशु मिलितांशेषसैनिकः । अनायाते प्रिये सख्यो किञ्चित्कालं व्यलम्बत ॥१२॥ प्रसीदोतिष्ठ यास्याव: किं त्वया कुप्यते वृथा । इत्येकेन प्रिया क्रुद्धा गमनायान्वनीयत ॥३॥ मित्रस्यांसस्थलं कश्चिद्वामेनालम्ध्य पाणिना। दक्षिणेनानताङ्गाद्धं गन्तुं कान्तामुदक्षिपत् ॥१४॥ अनुयान्तीं प्रियां कश्चित्पश्यन्व्यावृस्य संततम् । अगारान्निरगात्तस्यां स्वासक्ति वा प्रकाशयन् ॥१५॥ कण्ठासक्ता प्रियामन्यो मालामिव समुहन् । प्रातिष्ठतात्मनारीभिः सासूयं प्रेक्षितो मुहुः ॥६६॥ संभ्रान्तर्गमनायेवं गीर्वाणचित्रवाहनः । वासवस्य समाद्वारमापुपूरे समन्ततः ॥१७॥ मर्थशानादिनाकेशान्विलोक्य सहसागतान् । उदतिष्ठद्गमायेन्द्रः सौधर्मः सिंहविष्टरात् ॥१८॥ प्रास्थितेरावतारूढो भ्रमयंल्लीलयांकुशम् । पृष्ठारोपितया शच्या 'त्रासाश्लेषैः प्रतर्पितः ॥६६ अपूर्यत । ततस्तूर्यध्वनिमि वनोदरम् । समन्तादिविजानीकैः समं लोकान्तवतिभिः ॥१०॥
लिए उद्यम करने लगा ।।८।। कोई एक देव स्वामी से शङ्कित होता हुआ भी वीणा के समान मधुर भाषिणी सुन्दर स्त्री को चिरकाल बाद अपनी गोद से अलग कर सका था ।।१०।। अपनी स्त्री का नृत्य देखने से जिसका चित्त व्याक्षिप्त हो गया था ऐसा एक देव उसके संगीत को ही आगे कर घर से चला था ॥११॥ चलने के.लिये जिसके समस्त सैनिक यद्यपि शीघ्र ही इकट्ठ हो गये थे तो भी वह देव प्रिय मित्र के न आने पर कुछ काल तक विलम्ब करता रहा ।।१२।। 'प्रसन्न होमो, उठो, चलेंगे, तुम व्यर्थः ही क्यों क्रोध कर रही हो ?' इसप्रकार किसी देव ने अपनी कुपित प्रिया को चलने के लिये मना लिया था ||३|| कोई एक देव बांए हाथ से मित्र के कन्धे का पालम्बन कर दाहिने हाथ से कुछ झक कर चलने के लिये स्त्री को उठा रहा था ॥९४| कोई एक देव पीछे आती हुई प्रिया को बार बार मुड़ कर देखता हुआ उसमें अपनी आसक्ति को प्रकट करता घर से निकला था ||१५|| कोई देव कण्ठ में संलग्न प्रिया को माला के समान धारण करता हुआ चलने लंगा जब कि अन्य स्त्रियां ईर्ष्या के साथ उसे बार बार देख रहीं थीं ॥६६।। इसप्रकार चलने के लिये उत्कण्ठित नाना वाहनों वाले देवों से इन्द्र का सभा द्वार सब ओर से परिपूर्ण हो गया ।।७॥
तदनन्तर ऐशानेन्द्र आदि को सहसा पाया देख सौधर्मेन्द्र चलने के लिये सिंहासन से उठा ॥९॥ ऐरावत हाथी पर आरूढ होकर जो लीला पूर्वक अंकुश घुमा. रहा था तथा पीछे बैठी हुई इन्द्राणी भय से होने वाले आलिङ्गनों के द्वारा जिसे संतुष्ट कर रही थी ऐसे सौधर्मेन्द्र ने प्रस्थान किया |६६।। तदनन्तर सब ओर लोक के अन्त तक वर्तमान देवों की सेनाओं के साथ तुरही के शब्दों से जगत् का मध्यभाग परिपूर्ण हो गया ॥१००। आगे चलने वाले देवों की ध्वजाओं से मार्ग सब ओर
१ वीणां २ मधुरभाषिणी रम्यस्वरां च, ३ क्रोडात् ४ स्ववध्वा लास्यस्य प्रेक्षायां व्याक्षिप्त मानसं यस्य सः ५ सेष्ायथा स्यात्तथा ६चित्राणि विविधानि वाहनानि येषां तै: ७ गमनाय त्रासेन भयेन कृता आश्लेषा आलिङ्गनानि ते: ९ देवसैन्यैः ।
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