Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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अष्टमः सर्गः
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तदनन्तरं पितुः प्राप्य चक्रवतिपदं परम् । मासि पश्वशतैः पुत्रैः सहितः स्वरिवापरः ।। १७३ ॥ जन्मान्तरेष्व विच्छिन्नसत्सम्बन्धप्रबन्धतः । ग्रन्योन्यालोकनादत्र प्रीतिरित्यवयोरभूत || १७४।। दुरन्तेष्विन्द्रियार्थेषु सक्ति मा वितथां कृथाः । वैराग्यमार्गसद्भावभावनां भावयादरात् ।।१७५।। दह्यमाने जगत्यस्मिन्महता मोहवह्निना । विमुक्तविषयासङ्गाः सुखायन्ते तपोधनाः ।। १७६ ।। मोहान्धतमसेनान्धो मा मुस्त्वं ज्ञानदीपिकाम् । मयैव विघृतां प्राप्य दर्शिताशेषसत्पथाम् ।। १७७ ॥ तपसि श्रेयसि श्रीमाञ्जागरूको भवानिशम् । नोत्कृष्टोऽप्यधमस्येति संयतस्य गतिं गृही ॥ १७८॥ पुत्रज्ञातिकलत्रादिवागुरायामुदारधीः । मा पप्तः प्राप्तविद्याकश्छिन्द्यादत्र भवं भवान् ॥ १७६ ॥ इत्यतस्तस्य स्वस्याप्युक्त्वा यथाक्रमम् । हिते नियुज्य तं खेन्द्रमच्युतेन्द्रस्तिरोदधे ॥ १८०॥ विमुच्य खेचरंश्वयं स तृरणावज्ञया ततः । मेघनादः प्रवव्राज प्रणिपत्याभिनन्दनम् ।। १८१ ॥ शार्दूलविक्रीडितम्
योगस्थो विधिना जितेन्द्रियगरगो 'व्याधूततन्द्रास्थिति:
सम्यग्द्वादश भावना भवभिदः शुद्धात्मना भावयन् । दुर्वारान्स परीषहानिव परान्क्षान्त्योपसर्गानभाव
कुण्ठीकृत्य सुकण्ठशत्रुविहितान्कण्ठस्थतत्त्वागमः ॥ १८२ ॥ ॥
चक्रवर्ती पद पाकर तुम अन्य रूप धारी अपने ही समान हितकारी पांचसौ पुत्रों से सुशोभित हो रहे हो ।। १७३ ।। हम दोनों के अनेक जन्मों से अखण्ड अच्छे सम्बन्ध चले आ रहे हैं इसलिए परस्पर के देखने से प्रीति उत्पन्न हुई है ।। १७४ । । दुःख दायक इन्द्रियों के विषयों में व्यर्थ ही आसक्ति मत करो । आदर पूर्वक वैराग्य मार्ग में लगने की भावना करो ।। १७५ ।। बहुत भारी मोह रूपी अग्नि के द्वारा जलते हुए इस जगत् में विषयासक्ति को छोड़ने वाले तपस्वी मुनि ही सुखी हैं ।। १७६ ।। अपने द्वारा धारण की हुई, समस्त सन्मार्ग को दिखाने वाली ज्ञानदीपिका को प्राप्त कर तुम मोहरूपी गाढ़ अन्धकार से अन्धे मत हो । १७७ ।। लक्ष्मी से युक्त होने पर भी तुम निरन्तर कल्याणकारी तप में जागरूक - सावधान रहो अर्थात् उत्तम तप धारण करने की निरन्तर भावना रक्खो । गृहस्थ उत्कृष्ट होने पर भी साधारण मुनि की गति को प्राप्त नहीं हो सकता ।। १७८ । । उत्कृष्ट बुद्धि तथा विद्या से युक्त होकर भी तुम पुत्र जाति तथा स्त्री आदि के जाल में मत पड़ो। यहां तुम संसार को छेद सकते हो ।। १७६ ।। इसप्रकार यथाक्रम से उसके और साथ में अपने भी पूर्वभव कह कर तथा उस विद्याधर राजा को हित में लगाकर अच्युतेन्द्र तिरोहित हो गया ।।१८० ।। तदनन्तर मेघनाद ने तृरण के समान अनादर से विद्याधरों का ऐश्वर्य छोड़कर तथा अभिनन्दन गुरु को प्रणाम कर दीक्षा धारण करली ।। १८१ ।।
जो ध्यान में स्थित थे, जिन्होंने विधिपूर्वक इन्द्रियों के समूह को जीत लिया था, आलस्य की स्थिति को दूर कर दिया था, जो शुद्ध आत्मा से संसार का भेदन करने वाली बारह भावनाओं का
१ दूरीकृतप्रमादस्थिति: २ नष्टीकृत्य ।
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