Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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नवमः सर्गः
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उन्निद्रकुसुमामोदवासिताशेषदिङ मुख: । 'पुन्नागः कं न बाषेत पुन्नायमपि रागिणम् ॥ ४८ ॥ पद्माभिवृद्धिमान्बवजुलानामिव भूयसीम् । मधुः स्वसम्पदां क्षीवो लोकवत्स्वयमप्यभूत् ॥ ४९॥ मुदे कुन्दलता नासीत् पुरेव मधुपायिनाम् । बोतपुष्पोद्गमा वृद्धा वारनारीय कामिनाम् ।।५० ।। प्रसवः कणिकारस्य निर्गन्धो "नापि षट्पदे । भजते नो विशेषज्ञो वर्णमात्रेण निर्गुणम् ।। ५१ ।। प्रधत सकलो लोकः शिरसा सवधूजनः । माधवीलत्पदेनेव मूर्ती कीर्ति मनोभुवः ॥२४ नपुंसकमपि स्वस्थ "सागन्ध्येनेव केवलम् । व्यक्ति स्त्रीमयं यूनामङ्कोठसुमनो मनः ॥ ५३ ॥ वोल प्रेङ्खोलना साल्लीलाश्लेषैरतर्पयन् । तरुण्यः स्वान्सहारूढान्कान्तानुप 'सखीजनम् ।।५४।। कुसुमैर्मधु मत्तालिनिविष्टान्तर्वलान्वितैः । प्रतनोद्वनराजीनां तिलक "स्तिलक' श्रियम् ॥५५॥ कोडकुमेनाङ्गरागेण कंङ्किरार्तश्च शेखरैः । निर्वृत्तमिव रागेल रेजे स्वतंशुकं
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६।।
फूलों की सुगन्ध से जिसने समस्त दिशाओं के अग्रभाग को सुगन्धित कर दिया है ऐसा नागकेसर का वृक्ष पुरुषों में श्रेष्ठ होने पर भी किस रागी मनुष्य को वाधित नहीं करता ? |||४८ || जो अशोक वृक्षों की 'बहुत भारी लक्ष्मी वृद्धि के समान अपनी सम्पदाओं की बहुत भारी लक्ष्मी वृद्धि कर रहा था ऐसा वसन्त साधारण मनुष्य के समान स्वयं भी उन्मत्त हो गया था ||४६ || जिसके पुष्प - ऋतुधर्म की उत्पत्ति व्यतीत हो चुकी है ऐसी वृद्ध वेश्या, जिस प्रकार कामी मनुष्यों के आनन्द के लिए नहीं होती उसी प्रकार जिसको पुष्प - फूलों की उत्पत्ति व्यतीत हो चुकी है ऐसी कुन्दलता पहले के समान भ्रमरों के आनन्द के लिए नहीं हुई थी ।। ५०॥ गन्ध रहित कनेर का फूल भ्रमरों के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया था । सो ठीक ही है क्योंकि विशेष को जानने वाला व्यक्ति वर्ण मात्र से निर्गुण की सेवा नहीं करता है ।। ५१ ।। स्त्रियों सहित समस्त पुरुष मधु कामिनी की मालाओं को सिर पर धारण कर रहे थे उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों मालाओं के छल से कामदेव की मूर्तिमन्त कीर्ति को ही धारण कर रहे थे ।।५२।। युवाओं का मन यद्यपि ( व्याकरण के नियमानुसार) नपुंसक था तो भी प्रोट वृक्ष के पुष्प ने उसे केवल अपनी गन्ध से स्त्रीमय कर दिया था ।। ५३ ।। हिंडोलना चलने के भय से तरुण स्त्रियों ने सखीजनों के समीप में ही साथ बैठे हुए पतियों को अपने लीलापूर्वक प्रालिङ्गनों से संतुष्ट किया था ||५४ ॥
तिलकवृक्ष, पुष्परस से मत्त भ्रमरों से युक्त भीतरी कलिकांत्रों से सहित फूलों के द्वारा वन पङ्किरूपी स्त्रियों के तिलक की शोभा को विस्तृत कर रहा था । भावार्थ - तिलक वृक्ष के फूलों पर जो काले काले भ्रमर बैठे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानों वन पति रूपी स्त्रियों ने तिलक ही लगा रक्खे हों ।। ५५।। कुङ कुम- केशर से निर्मित अङ्गराग और किङ्किरात के फूलों से निर्मित सेहरों
१ पुन्नाग - नागकेसर वृक्षः २ श्रेष्ठपुरुषम् ३ भ्रमराणाम् ४ वीतः पुष्पाणाम् कुसुमानामुद्गमो यस्याः सा कुसुमरहिता कुन्दलता । वारनारी - वेश्यापक्षे वीतः समाप्तः पुष्पस्य आर्तवस्य उद्गम उत्पत्तिर्यस्याः सा ५न आपि न प्राप्तः कर्मणि प्रयोगः ६ मधुकामिनीलता माला व्याजेन ७ गन्धसहितत्वेन गर्वत्वेन च ८ अङ्कोटकुसुमम् ६ सखीजनस्य समीपेऽपि १० मधुना पुष्परसेन मत्ता ये अलयः तैः निविष्टानि युक्तानि यानि अन्तर्दलानि मध्यपत्राणि ते । अन्वितैः सहितैः ११ क्षुरप्र वृक्षः १२ स्थासकशोभाम् । १३ किङ्किरातकुसुम निर्मितैः
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