Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
नवमः सर्ग:
१०६ हक्यान्तर्गतं मानं कर्योपान्ते निवेशितः । 'निरास्त योषितां चित्रमचिराच्चूतपल्लवः ॥६६॥ 'हिमोस्रस्य हिमापायात्सान्द्रीभूतैः करोत्करः । दिग्विमार्गः सहानगो निशासु विशवोऽभवत् ॥६॥ क्षिपन्नितस्ततोऽमन्दं भूरिपुष्पशिलीमुखान् । लोकानाकम्पयामास. "स्मरवदक्षिरणो मरुत् ॥६॥ नानाविधलतासूनलम्पटः षट्पदः 'पदम् । वीरुध्यषित नैकस्यां 'तरलः को न तृष्णया ॥६६॥ सहसैकमपि प्रायात्प्रेम स्त्रीपुंसयोस्तवा । नवतां वर्धते सर्वो नून कालबलात्कृशः ॥७॥ जृम्भमाणे मघावे रन्तुमन्तःपुरान्वितः । युवराजोऽन्यदाऽयासीस देवरमरणं वनम् ॥७१॥ स यथाभिमतं तस्मिन्निविवेश मधुधियम् । कोपप्रसादलोलाभिर्वाध्यमानोऽवरोधनः ॥७२॥ तस्मिन्नुत्तपमानेऽथ "तपनेऽनोकहावषः । तृषितेवालवालाम्बु पातुं छायाप्युपाययौ ।।७३।। स्त्रीणां कपोलमूलेषु 'प्रोद्यत्स्वेदलवोत्कराः । ह पयन्तिरुम तत्काले सिन्दुवारस्य मखरीम् ।।७४॥
रूपी मनोहर युवतियां ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों विलास सहित (पक्ष में पक्षियों के संचार से युक्त ) वसन्त की लक्ष्मी को ही धारण कर रही हों ॥६५॥ कानों के पास धारण किये हुए आम के पल्लव ने स्त्रियों के हृदय के भीतर स्थित मान को शीघ्र ही निकाल दिया था यह आश्चर्य की बात थी ॥६६।। हिम-कुहरे के नष्ट हो जाने से सान्द्रता-सघनता को प्राप्त होने वालीं चन्द्र किरणों के समूह से रात्रियों में काम भी दिशाओं के विभाग के साथ साथ विशद-उज्ज्वल अथवा अत्यंत प्रकट हो गया था ॥६७।। इधर उधर बहुत भारी पुष्प और भ्रमरों को ( काय के पक्ष में पुष्प रूपी वाणों को) चलाता है दक्षिण मरुत्-दक्षिण दिशा से आने वाला मलय समीर कामदेव के समान लोगों को अत्यधिक कम्पित कर रहा था ॥६८।। नाना प्रकार की लताओं के फूलों का लोभी भ्रमर किसी एक लता पर पैर नहीं रखता था अथवा अपना स्थान नहीं जमाता था सो ठीक ही है क्योंकि तृष्णा से कौन चञ्चल नहीं होता? ॥६।। उस समय स्त्री पुरुषों का प्रेम एक होने पर भी नवीनता को प्राप्त हो गया था सो ठीक ही था क्योंकि समय के बल से सभी कृश पदार्थ निश्चित् ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं ।।७०॥
___ इसप्रकार वसन्त ऋतु के विस्तृत होने पर किसी समय युवराज अन्तःपुर सहित क्रीडा करने के लिये देवरमण वन को गया ।।७१।। स्त्रियों द्वारा क्रोध और प्रसाद की लीलाओं से वाधित किये गये युवराज ने उस वन में इच्छानुसार वसन्त की लक्ष्मी का उपभोग किया ॥७२।। तदनन्तर उस वन में जब सूर्य ऊपर तप रहा था तब छाया भी वृक्षों के नीचे आ गयी थी और उससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानों पिपासा से युक्त होकर क्यारी का पानी पीने के लिये ही वृक्षों के नीचे पहुंच गयी हो ।।७३।। उस समय स्त्रियों के गालों के मूल भाग में उठते हुए स्वेद कणों के समूह सिन्दुवार की मञ्जरी को लज्जित कर रहे थे ॥७४।। जिस प्रकार सुन्दर अग्रभाग से युक्त सूडों वाली हस्तिनियां
१ हिमांशोः चन्द्रमस: २ किरणसमूहैः ३ अत्यधिककुसुम बाणान् ४ दक्षिणदिशातः समागत: ५ पवनः ६ पदं स्थानं चरणं च ७ लतायाम् ८ चञ्चलः ६ एतन्नामधेयम् १० अन्तःपुरस्त्रीभि। ११ सूर्य १२ वृक्षात्-अनस: शकटस्य अकं गति हन्तीति अनोकहः वृक्षः तस्मात् १३ समुत्पद्यमानस्वेदकण समूहाः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org