Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् प्राणिनामभयं दातु तेषां विनयनाय च । ममो मेघरथाम॒पो नान्य इत्यम्यषात् पूषा' ॥५३।। इतीन्द्रेगेरितं श्रुत्वा मद्यशस्तत्पिधित्सया । वाग्वृत्तिः पक्षिणोरेषा तेनाकारि सुधाभुना ॥५४॥ इत्युक्त्वावसिते तस्मिन्स्ववृत्तान्तं महीपतिः। प्रादुरासीत्सुरः प्रह्वः स्वरुचा द्योतयन्सवः ॥५५॥ तस्याप्य पारिजातस्य पारिजाताञ्चितो पदौ । कृत्वा राज्ञः क्रमादेवं स देवो वाक्यमावदे ।।५६।। संतापः सर्वलोकस्य निरासि कृपया तव । वृष्टया नवाम्बुदस्येव विनिर्धू तरज:स्थितेः ॥५७।। केऽन्ये प्रशममाघातु तिरश्चामेवमीशते । भूभृतापि त्वयाभारि कथं धाम तपोभृताम् ।।५।। परप्रशमनायव स्वाहशस्योदयः सता । यथा तमोपहस्येन्दोर्जगदानन्ददायिनः ॥५६॥ लक्ष्यते पारमश्वर्य मावि ते भावितात्मनः । एवंविधैर्गुणैरेभिन्यक्कृतान्यगुणोत्करः ॥६०॥ इति स्तुत्वा महीनाथं सुरः स्वावासमभ्यगात् । घनान्सेन्द्रायुधीकुर्वन्मार्गस्थान्मुकुटांशुभिः ॥६१।।
सुरूप देव हुआ । भावार्थ-उस देव का नाम सुरूप था तथा शरीर से भी वह सुन्दर रूप वाला था ॥५२॥ एक बार इन्द्र ने कहा कि प्राणियों को अभय दान देने तथा उन्हें शिक्षित करने के लिए समर्थ मेघरथ के सिवाय दूसरा राजा नहीं है ।।५३।। इस प्रकार इन्द्र के द्वारा कहे हुए मेरे यश को सुनकर उसे छिपाने की इच्छा से उस देव ने इन पक्षियों की यह वचन वृत्ति कर दी है ।।५४।। इस प्रकार अपना वृत्तान्त कह कर जब राजा मेघरथ चुप हो रहे तब वह देव अपनी कान्ति से सभा को देदीप्यमान करता हुआ नम्र भाव से प्रकट हुआ ॥५५।। राजा मेघरथ यद्यपि अपारिजात थेपारिजात-कल्प वृक्ष के पुष्पों से रहित थे (पक्ष में शत्रु समूह से रहित थे) तथापि उस देव ने उनके चरणों को पारिजाताञ्चित-कल्पवृक्ष के पुष्पों से पूजित किया था। पूजा करने के बाद उसने क्रम से इस प्रकार के वचन कहे ॥५६॥
जिस प्रकार विनिर्धू तरजः स्थितेः-धूली की स्थिति को दूर करने वाले नूतन मेघ की वृष्टि से सर्वजगत् का संताप दूर हो जाता है उसी प्रकार विनिर्धू तस्थितेः-पाप की स्थिति को दूर करने वाले आपकी कृपा से सर्व जगत् का संताप दूर किया गया है ॥५७॥ ऐसे दूसरे कौन हैं, जो तिर्यञ्चों के भी शान्ति धारण कराने के लिए समर्थ हों? आपने राजा होकर भी तपस्वियों का भार धारण किया है॥५८। जिस प्रकार अन्धकार को नष्ट करने वाले तथा जगत को प्रानन्ददायी चन्द्रमा का उदय दूसरों को शान्ति प्रदान करने के लिए होता है उसी प्रकार अज्ञानान्धकार को नष्ट करने तथा जगत को आनन्द देने वाले आप जैसे सत्पुरुष का उदय दूसरों की शान्ति के लिये हुआ है ।।५।। आप आत्मस्वरूप की भावना करने वाले हैं। अन्य मनुष्यों के गुण समूह को तिरस्कृत करने वाले आपके ऐसे गुणों से आपका आगे होने वाला पारमैश्वर्य-परमेश्वरपना प्रकट होता है ॥६०॥ इस प्रकार राजा की स्तुति कर वह देव मुकुट की किरणों से मार्ग स्थित मेघों को इन्द्रधनुष से युक्त करता हुआ अपने निवास स्थान पर चला गया ॥६१॥ मार्ग का उपदेश देने वाले राजा मेघरथ के द्वारा
४ पारिजाताञ्चितो कल्पवृक्ष
१ इन्द्रः २ देवेन ३ अपगतं विनष्टम् अरिजातं शत्रुसमूहो यस्य तस्य पुष्प पूजितौ ।
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