Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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द्वादशः सर्गः सर्व दु:खं पराधीनमात्माषीनं परं सुखम् । इती बदते लोको निरालोकेऽपि वर्तते ॥१०६॥ 'योगहेतुभिरष्टानिध्यमानस्य कर्मभिः । भवेत्कटुविधाकान्तः कुतः स्वातन्त्र्यमात्मनः ॥१०॥ इन्द्रियाणि शरीराणि पच च क्षेत्रवेविनः । पावनोऽत्यन्तभिन्नानि कार्मरणानि प्रचक्षते ॥१०८|| कर्मपाथेयमादाय चतुर्गतिमहाटवीम् । प्रात्माध्वनः सदा भ्राम्यन्सुखदुःखानि मिविशेत ॥१॥ प्राङ्गिकं मानसं दुःखमपि सभ्रनिवासिमा । सदानुभूयते घोरमात्मना कर्मपाकतः ॥११०॥ तस्मात्किचिदिव म्यूनं तेरी गतिनीपुषा । दुःबमित्याहुरात्मशा जीवस्यानात्मवेविनः ॥११॥ किश्चित्सुखलवाकान्तं मधुदिन्यमियोपमम् । मर्त्यधर्माश्नुते दुःखमिन्द्रियार्थः 'कर्णितः॥११२॥ देवो झण्ठगुरणेश्वर्यो 'निराविव विद्यते। मतो दुःखपरिप्लुष्टं मतं गतिचतुष्टयम् ॥११३॥ प्रतो विम्यत्प्रबुबास्मा संसासारवजितात् । मुक्तावृत्तिष्ठते भव्यो रत्नत्रितयभूषितः ॥११४॥ भव्यः पर्याप्तकः संत्री जीव: पनियाम्वितः । काललध्यादिभिर्युक्तः सम्यक्त्वं प्रतिपचते ॥११॥ सम्यक्त्वमथ तत्वाभवानं परिकीतितम् । तस्योपशमिको मेवः क्षायिको मिश्र इत्यपि ॥११॥ सप्तानां प्रशमात्सम्यक् क्षयानु भयतोऽपि वा । प्रकृतीनामिति प्राइस्तत्वैविध्यं सुमेधसः ॥११७॥
वस्तुतः संसार में दुःख ही सुख समझा जाता है ॥१०५।। जो मनुष्य अन्धकार में बैठा है वह भी यह कहता है कि पराधीन सभी कार्य दुःख हैं और स्वाधीन सभी कार्य परम सुख हैं ।।१०६॥ जिनका योग कारण है तथा जिनका अन्त अत्यन्त कटुक-दुखदायी है ऐसे पाठ कर्मों से बधित जीव को स्वतन्त्रता कैसे हो सकती है ? ॥१०७॥ क्षेत्रज्ञ-आत्मज्ञ मनुष्य कर्म निर्मित पांच इन्द्रियों तथा पांच शरीरों को प्रात्मा से अत्यन्त भिन्न कहते हैं ।।१०८।। आत्मा रूपी पथिक कर्म रूपी संवल को लेकर चतुर्गति रूपी महाअटवी में सदा भ्रमण करता हुआ सुख दुःख भोगता है ॥१०६॥ नरक में निवास करने वाला जीव कर्मोदय से सदा शारीरिक और मानसिक भयंकर दुःख भोगता है ।।११०॥ प्रात्मा को नहीं जानने वाला जीव जब तिर्यञ्च गति में पहुंचता है तब वह नरक गति से कुछ कम दुःख भोगता है ऐसा प्रात्मज्ञ मनुष्य कहते हैं ॥११॥। जब यह मनष्य होता है तब इन्द्रिय विषयों से पीडित होता हुआ कुछ सुख कणों से मधुलिप्त विष के समान दुःख भोगता है ।।११२॥ आठ गुणों के ऐश्वर्य से युक्त देव भी मानसिक व्यथा से रहित नहीं है अतः चारों गतियां दुःख से संतप्त मानी गयी हैं ॥११३॥ यही कारण है कि ज्ञानी भव्यजीव असार संसार से भयभीत होता हुआ रत्नत्रय से विभूषित हो मुक्ति के लिए उद्यम करता है ।।११४।।
___ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक भव्य जीव काललब्धि आदि से युक्त होता हुआ सम्यक्त्व को प्राप्त होता है ।।११।। तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहा गया है। उसके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इसप्रकार तीन भेद हैं ॥११६॥ वह तीन भेद भी अनन्त वन्धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्यात्व सम्यङ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम क्षय और
। नरकनिवासिना ५ पीडितः
१ योगो हेतुर्येषां तै: २ कर्मव पाथेयं सम्बलं तत् ३ शारीरिकं ६ मानसिक व्यथा रहितः ७क्षयोपशमात ।
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