Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम्
अनासादित सन्मार्गा जीवा भ्राम्यन्ति संसृतौ । तेनेत्यपायविचये तेने स्मृतिरंनारतम् ।। १५८। विविच्य कर्मणां पाकं विचित्रतरशक्तिकम् । स स्मरन्नस्मरो' जज्ञे विपाकविचये स्थिरः ।। १५६ ।। प्रस्तिर्यगथोध्वं च लोकाकारं विचिन्वता । लोकसंस्थानविचयस्तेनेत्यस्मर्यंत क्रमात् ॥ १६०॥ जातु वध्याविति ध्येयमपरिप्लवमानसः । भावनास्वपि चोतस्ये पारिप्लवतयात्मनः ।। १६१ ॥ मासमेकं विधायैवं धीरः प्रायोपवेशकम् । प्रक्षीणं कायमत्याक्षीत्प्रियः कस्याथवा कृश: ।। १६२ ।। सर्वार्थसिद्धिमासाद्य ततः सर्वार्थसिद्धितः । उ चन्द्रावदातया मूर्त्या कीर्त्या चाजनि राजितः ॥ १६३ ॥ स तंत्र "हस्तदहनोऽपि बभूवाम्युच्छ्रितावधिः । श्रहमिन्द्रोऽभिषां विभ्रन्महेन्द्र इति विश्र ताम् || १६४ ।।
स
सिद्धसुख 'देशीयमप्रवीचारमन्वभूत् । सुखं तत्र त्रयस्त्रशत्समुद्रस्थितिमुद्रितम् ।। १६५ ।। ततः परिवृढो भूत्वा साधूनां दृढसंयमः । प्रतप्यत तपो बाढं चिरं दृढरथोऽप्यसौ ।।१६६ ।। सम्यक्त्वज्ञान चारित्रतपस्याराध्य शुद्धधीः । प्रायोपवेशमार्गेण तनुं तत्याज तस्ववित् ॥ १६७॥
संसार में भ्रमण करते हैं ऐसा उन्होंने अपायविचय धर्म्यध्यान में निरन्तर विचार किया था ।। १५८ ।। कर्मों का उदय अत्यंत विचित्र शक्ति से युक्त होता है ऐसा विचार करते हुए वे निष्काम योगी, चिरकाल तक विपाकविचय नामक धर्म्यध्यान में स्थिर हुए थे ।। १५६ ॥ नीचे, मध्य में तथा ऊपर लोकके
कार का विचार करते हुए उन्होंने क्रम से लोकसंस्थानविचय नामका धर्म्यध्यान का चिन्तवन किया था ।। १६० ।। इस प्रकार स्थिर चित्त के धारक वे मुनिराज कभी ध्येय का इस प्रकार ध्यान करते थे और कभी आत्मा की चञ्चलता से भावनाओं में उद्यत रहते थे । भावार्थ - चित्त की एकाग्रता में ध्यान करते थे और कभी चित्त की चञ्चलता होने पर अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तवन करते थे ।।१६१।। इसप्रकार उन धीर वीर मुनिराज ने एक मास तक प्रायोपगमन करके अतिशय क्षीण शरीर का त्याग किया सो ठीक ही है क्योंकि कृश किसे प्रिय होता है ? ।।१६२ ॥ तदनन्तर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त कर वहां समस्त प्रयोजनों की सिद्धि होने से वे चन्द्रमा के समान शरीर और कीर्ति से सुशोभित होने लगे ।। १६३ ।। वहां वे एक हाथ प्रमारण होकर भी उच्छ्रितावधि - अत्यधिक अवधि - सीमा से सहित ( परिहार पक्ष में श्र ेष्ठ अवधिज्ञान से युक्त थे ) तथा महेन्द्र इस प्रसिद्ध संज्ञा को धारण करने वाले अहमिन्द्र हुए ।। १६४ ॥ | वहां वे सिद्ध सुख से किंचित् ऊन, प्रवीचारमैथुन से रहित तथा तेतीस सागर प्रमाण स्थिति से युक्त सुख का उपभोग करते थे ।। १६५ ।।
तदनन्तर दृढ़ संयम के धारक दृढ़ रथ ने भी मुनियों के स्वामी बन कर चिरकाल तक ठीक तप किया ।। १६६ ।। शुद्ध बुद्धि से युक्त तत्त्वज्ञ दृढ़रथ मुनिराज ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् - चारित्र और सम्यक्तप नामक चार आराधनाओं की प्राराधना कर सल्लेखना की विधि से शरीर छोड़ा || १६७ ।। पहले बड़े भाई मेघरथ ने प्रारूढ होकर जिस स्वर्ग रूपी गजराज को अलंकृत किया था, उन्हीं के गुणों का अभ्यास होने से ही मानों दृढ़रथ भी उसी स्वर्ग रूपी गजराज पर श्रारूढ हुए ।
१ अकामः २ स्थिरचित्तः ३ चन्द्रवदुज्ज्वलया: ४ शरीरेण ५ हस्तप्रमाणः किञ्चिदूनमिति सिद्धसुखदेशीयम् ७ स्वामी ।
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६ सिद्धसुखात्
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