Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् 'चारुपुष्करहस्ताभिर्वशाभिरिव दिग्गजः । निन्येऽप वीधिको तामिः कान्तामिः स महोदयः ॥७॥ अन्तःपुरस्य विशतः प्रतिबिम्बपदात्प्रभुम् । तं वा प्रत्युद्ययुः प्रीत्या बोषिकाबलदेवताः ॥७६।। चारलावण्मयुक्ताङ्गः कान्ततोराबरोधनः । तदेवान्वर्यनामासीद्दीधिका प्रियदर्शना ॥७॥ विशतः स्त्रोजनस्योच्च नितम्बः प्रेरितं तदा । प्रमादिव मुवा स्वान्तर्ववो जलमप्यलम् ॥७८।। कान्त्या कान्तिः सरोजानां सौरमेण च सौरमम् । वदनैः पर्यभावोति स्त्रीणां भङ्ग रिवोज्जगे ॥७॥ तासामन्तःस्फुरमूरिरत्नाभरपरोचिषा । मासीदन्तःप्रवीप्तं वा तबम्भोऽप्यङ्ग बाग्निना ।।८०॥ प्रदोग्यत्सोऽपि कान्तामियात्त्युतीव्याकुलीकृतः । भजते हि जलक्रीडा स्त्रीजितः सुमहानपि ॥१॥ अन्योन्यसेविक्षिप्तवारिसोकरविनः । मिहिकापिहितेवासीत्समन्तादपि वोधिका ।।२।। इत्वमाडमा तं साई सत्रावरोधनः। विद्यु दंष्ट्रो ददर्शारिदिविजो व्योमनि वमन् ॥३॥ चुकुधे तरसा तेन ज्ञात्वा तद्व रकारणम् । मानिमित्तेन' न स्यातां कोपप्रीती हि देहिनाम् ।।४।।
दिग्गज को किसी आयताकार जलाशय के पास ले जाती हैं उसी प्रकार सुन्दर कमलों को हाथ में धारण करने वाली स्त्रियां उस युवराज को आयताकार जलाशय के समीप ले गयी थीं ॥७५॥ भीतर प्रवेश करने वाली स्त्रियों के प्रतिबिम्ब के बहाने आयताकार जलाशय के जल देवता उस युवराज की मानों प्रीति पूर्वक अगवानी ही कर रही थीं ॥७६।।
प्रियदर्शना नाम वाली वह दीपिका सुन्दर लावण्य युक्त शरीरों से सहित सुन्दर तीर पर स्थित स्त्रियों के द्वारा ही मानों उस समय सार्थक नाम वाली हो गयी थी ॥७७।। उस सम करने वाली स्त्रियों के उन्नत नितम्बों से प्रेरित हुआ जल भी हर्ष से अपने भीतर न समाता हुआ ही मानों अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥७८।। स्त्रियों की कान्ति से कमलों की कान्ति, सुगन्ध से सुगन्ध और मुखों से कमल स्वयं पराभव को प्राप्त हो चुके हैं ऐसा भ्रमर मानों जोर जोर से कह रहे थे ॥७६।।
उन स्त्रियों के चमकते हुए रत्नमय बहुत भारी आभूषणों की कान्ति से भीतर देदीप्यमान होने वाला वह जल भी ऐसा हो गया था मानों कामाग्नि से ही भीतर ही भीतर प्रदीप्त हो गया हो ॥८०॥ स्त्रियों के द्वारा फाग से व्याकुल किया गया युवराज भी फाग खेलने लगा सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियों के द्वारा जीता गया महान् पुरुष भी जल क्रिया ( पक्ष में जड़-अज्ञानी जन की क्रिया) को प्राप्त होता है ।।८१॥ परस्पर के सेचन से फैले हुए जल कणों की घनघोर वर्षा से वह दीपिका भी चारों ओर से ऐसी हो गयी थी मानों कुहरा से ही आच्छादित हो गयी हो ।।८२।। इस प्रकार अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ क्रीडा करते हुए युवराज को आकाश में जाने वाले विद्यु दंष्ट नामक शत्रु देव ने देखा ।।८३।। उसके वैर का कारण जान कर वह देव शीघ्र ही क्रुद्ध हो गया सो ठीक ही है क्योंकि प्राणियों का क्रोध और प्रेम कारण के बिना नहीं होते हैं ।।८४|| बहुत भारी क्रोध से भरे
१ शुण्डाग्रभाग: पक्षे कमलं-चारुपुष्करो हस्तः शुण्डा यासां ताभि: हस्तिनीभिः कान्ता पक्षे चारुपुष्करी सुन्दरकमलसहितौ हस्तौ पाणी यासां ताभिः २ हस्तिनीभिः ३ प्रिय दर्शनं यस्याः सा पक्षे एतन्नामधेया ४ कामाग्निना ५ देवः ६ निमित्तं विना। .
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