Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् पूर्व तमायुषाध्यक्षं कृत्वा पूर्णमनोरयम् । यथागम मथानचं चक्रं चामृतां वरः ॥१७॥ ततश्चक्रपुरःसारी स्वीकृत्यः सकला पराम् । प्रचिरेणव कालेन प्रावितरस्यपुरं पुनः ॥१५॥
सम्राट् चतुर्दशभ्योऽपि रत्नेभ्यः सुखसावनम् । स्वस्यामन्यत भव्यत्वाद्रत्नत्रितयमेव सःen द्वात्रिंशता सहस्रण सेव्यमानोऽपि भूभुजाम् । प्रभून्नवनिधीशोऽपि चित्रं निविषयाशयः ॥२०॥ सम्राजमेकदा कश्चिद्विद्याभृत्ससि स्थितम् । प्राययो शररणं व्योम्नः शरण्यं शराबिमाम् ॥२॥ 'खेचरी तदनुप्राप्य काचिदित्याह चक्रिणम् । प्रषिमस्तकमारोप्य विघृतासिपरौ करो ॥२२।। *कृतागसममुं देव तब रक्षितुमक्षमम् । दीक्षितस्य प्रजात्रातुमप्राकृतमहीलित: ॥२३॥ विक्रान्तविक्रमस्यापि पुरुषस्य तबापतः । युक्तं न वस्तुमात्मीयं पौत्वं किं पुनः स्त्रियाः ॥२४॥ तस्यामित्वं प्रयागर्भ बस्यामय भारतीम् । वृद्धोऽतिवेगतः प्रापदपरो मुद्गरोद्यतः ॥२५॥ उत्सृज्य मुद्गरं दूरातुपेत्य विहितामतिः । व ते स्मेति वचो वाग्मी प्राञ्जलिः परमेश्वरम् ॥२६॥ अपाच्यामिह रूप्याद्रेः श्रेण्या शुक्लप्रभंपुरम् । विद्यते तस्य नाथोऽस्मि ख्यातो नाम्ना प्रभञ्जनः ॥२७॥
चक्रवतियों में श्रेष्ठ वज्रायुध ने सबसे पहले शस्त्रों के अध्यक्ष नन्द के मनोरथ को पूर्ण किया पश्चात् शास्त्रानुसार चक्र की पूजा की ।।१७।। तदनन्तर चक्ररत्न को आगे आगे चलाने वाला चक्रवर्ती थोड़े ही समय में समस्त पृथिवी को वश कर पुनः अपने नगर में प्रविष्ट हुआ ॥१८॥ भव्यत्व गुण के कारण वह सम्राट चौदहों रत्नों की अपेक्षा रत्नत्रय--सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को ही अपने सुख का साधन मानता था ॥१६॥ यद्यपि बत्तीस हजार राजा उसकी सेवा करते थे और नौ निधियों का वह स्वामी था तो भी उसका हृदय विषयों से विरक्त रहता था ।।२०।।
___ एक समय शरणार्थियों को शरण देने वाले सम्राट सभा में विराजमान थे उसी समय कोई विद्याधर आकाश से उनकी शरण में आया ॥२१॥ उसके पीछे ही एक विद्याधरी आयी और तलवार से युक्त हाथों को मस्तक पर धारण कर चक्रवर्ती से इस प्रकार कहने लगी ॥२२॥ हे देव ! आप असाधारण राजा हैं तथा प्रजा की रक्षा करने के लिये दीक्षित हैं -सदा तत्पर हैं अतः आपको इस अपराधी की रक्षा करना योग्य नहीं है ।।२३।। आपके आगे पराक्रमी मनुष्य को भी अपना पौरुष कहना उचित नहीं है फिर मुझ स्त्री की तो बात ही क्या है ? ॥२४।। तदनन्तर जब वह स्त्री लज्जा
प्रकार के वचन कह रही थी तब मदगर उठाये हए एक दूसरा वद्ध पुरुष बडे वेग से वहां प्राया ।।२५।। दूर से हो मुद्गर को छोड़कर तथा समीप में पाकर जिसने नमस्कार किया था, जो प्रशस्त वक्ता था और हाथ जोड़कर खड़ा हुआ था ऐसे उस वृद्धपुरुष ने सम्राट से इस प्रकार के वचन कहे ॥२६॥
इस विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक शुक्लप्रभ नामका नगर है मैं उसका राजा हूँ तथा प्रभजन नाम से विख्यात हूं ॥२७।। शुभकान्ता इस नाम से प्रसिद्ध मेरी स्त्री है। शुभकान्ता
१ चक्रवर्ती २ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूपम् ३ विरक्ताशयः ४ विद्याधरी ५ कृतापराधम् ६ लज्जायुक्त पपास्यात्तथा ७ वाणीम् ८ विजयाद्ध पर्वतस्य ।
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