Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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एकादशः सर्गः
१४१ अनुभूय दिवः सौख्यं जयन्तविजयौ युवाम् । प्रभूतां खेचराधोशावानताखिलखेचरौ ॥६१॥ इत्यतीतभवान्स्वस्य श्रुत्वा तस्मात्तपोनिधेः। तरसागमतां व्योम्ना सुतौ ते त्वविक्षया ॥६२॥ योध्येतामिमावेवं ताम्रचूडौ स्वविद्यया । दिक्षुरनयोर्युद्ध भवानित्यवगम्य तौ॥६३॥ समुदन्तं निगद्य वं विरते भूपतेः सुते । प्राविश्चक्रतुरात्मानं व्योम्नि व्योमचरेश्वरी ॥६॥ जन्मान्तरागतानूनप्रीतिभारानतेन तौ । शिरसा मनसा साद्धं पादावानचतुः पितुः ॥६५॥ अप्राकृतोऽप्यसौ गाढं तावाश्लिष्यद्विशांपतिः। केषां न संम्रम कुर्यास्प्रेम जन्मान्तरागतम् ॥६६॥ तौ चिराद् भूभृताश्लिष्य मुक्तौ तच्चरणद्वयम् । प्रीत्योत्फुल्लमुखाम्भोजी भूयोभूयः प्रणेमतुः ॥६७॥ युवेशेनापि तौ प्रोत्या बदृशाते कृतानती। स्वसहोदरसामान्यप्रतिपत्त्या प्रतीयताः॥६॥ स्मृतजन्मान्तरोदन्तौ तौ संभाव्य नरेश्वरः । स्वकरामर्शन ह तयोरागमनश्रमम् ॥६॥ तत्प्री योचितसन्मानप्रवृद्धप्रणयान्वितौ । तौ विसृष्टौ चिराद्राज्ञा स्वषाम प्रतिजग्मतुः ॥७०॥ तौ लक्ष्मी पुत्रसात्कृत्य नत्वा गोवर्धनं मुनिम् । संसारवासतस्त्रस्तावजायेतां तपोधनौ ॥७१।।
जयन्त और विजय स्वर्ग के सुख भोगकर समस्त विद्याधरों को नम्रीभूत करने वाले आप दोनों विद्याधर राजा हुए हैं ।।६१।। इस प्रकार उन मुनिराज से अपने पूर्वभव सुनकर तुम्हारे वे पुत्र आपको देखने की इच्छा से वेग पूर्वक प्रकाश द्वारा यहां आये थे ॥६२।। आप इन मुर्गों का युद्ध देखना चाहते हैं यह जानकर उन्होंने इन मुर्गों को अपनी विद्या द्वारा इस प्रकार लड़ाया है ॥६३॥ इस प्रकार उनका वृत्तान्त कह कर जब राजा घनरथ के पुत्र मेघरथ चुप हो रहे तब उन विद्याधर राजाओं ने आकाश में अपने आप को प्रकट किया ॥६४।।
उन्होंने जन्मान्तर से आयी हुई प्रीति के बहुत भारी भार से ही मानों नम्रीभूत शिर से मन के साथ पिता के चरणों की पूजा की ॥६५।। राजा वनरथ यद्यपि असाधारण पुरुष थे तथापि उन्होंने उनका गाढ आलिङ्गन किया सो ठीक ही है क्योंकि जन्मान्तर से आया हुया प्रेम किन्हें हर्ष उत्पन्न नहीं करता ? ॥६६॥ राजा ने चिरकाल तक आलिङ्गन कर जिन्हें छोड़ा था तथा प्रीति से जिनके मुख कमल विकसित हो रहे थे ऐसे उन दोनों ने बार बार राजा के चरणयुगल को नमस्कार किया ॥६७।। युवराज ने भी नमस्कार करने वाले उन दोनों को प्रीति पूर्वक देखा । युवराज उन्हें भाई के समान सन्मान दे रहा था तथा उनकी प्रतीति कर रहा था ॥६८। जिन्हें अपने जन्मान्तर का वृत्तान्त स्मृत हो गया था ऐसे उन दोनों का राजा ने खूब सन्मान किया और अपने हाथ के स्पर्श से उनके आगमन का श्रम दूर कर दिया ॥६६॥ उनकी प्रीति के कारण जो योग्य सन्मान से बढ़े हुए स्नेह से सहित थे ऐसे दोनों विद्याधर चिर काल बाद राजा से विदा लेकर अपने स्थान पर चले गये ॥७॥ वहां जा कर संसार वास से भयभीत दोनों विद्याधर राजा पुत्रों को लक्ष्मी सौंपकर तथा गोवर्धन मुनि को नमस्कार कर साधु हो गये ॥७१॥ तदनन्तर मुर्गों ने अपने भवान्तर जानकर कर्मजन्य वैर को
१स्वहस्तस्पर्शनेन २ भीती।
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