Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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एकादशः सर्गः मेरौ 'पुष्यन्नमेरौ तौ विहरन्तौ यदृच्छया । मुनि सागरचन्द्राख्यमैक्षिषातां जिनालये ॥३६॥ चूडारत्नांशुमचर्या तमभ्याचितं सताम् । स्वमतीतभवं भव्यौ भव्येशं पृच्छतः स्म तौ॥४०॥ प्रथावावधिज्ञानमित्याह मुनिसत्तमः । निरस्य नमलक्यिः स तयोर्ह वि सत्तमः ॥४१।। द्वीपस्यरावते क्षेत्रे द्वितीयस्य प्रकाशते । पृथिवीतिलकाकारं पृथिवीतिलकं पुरम् ॥४२।। प्रभूदमयघोषाख्यः पुरस्याभयमानसः । तस्य त्राता महासत्त्वो द्विषतामभिमानसः ॥४३॥ कनकादिलता नाम्नी लताङ्गी तस्य भूषणम् । महिषी महनीयद्धर्वेला वार्द्ध रिवाभवत् ॥४४।। तस्यामुत्पादयामास जयन्त विजयाभिधौ । सुतौ स नीतिमान्भूपा कोषदण्डाविव मिती ॥४॥ सुभौमनगरेशस्य शङखाख्यस्य महीक्षितः । तनयां पृथिवीषेखामुपायत स चापराम् ॥४६॥ तस्यां परिवृढः सक्तो नवोढायो महीभृताम्' । विरक्तोऽभून्महादेव्यां कामिनो हि नवप्रियाः ॥४७॥ तामभ्यरोरमद्भपस्तत्सौभाग्यविलोभितः । रम्यासु हर्म्यमालासु नवे चोद्यानमण्डले ॥४८।।
से युक्त सुमेरु पर्वत पर विहार कर रहे थे । वहां उन्होंने एक जिनालय में सागरचन्द्र नामक मुनि को देखा ॥३६॥ उन दोनों भव्यों ने सत्पुरुषों के पूज्य भव्योत्तम मुनिराज की चूडारत्न की किरण रूप मञ्जरी से पूजा कर अपना प्रतीतभव पूछा ।।४०॥
तदनन्तर मुनिराज अवधिज्ञान को परिवर्तित कर -इस ओर संलग्न कर इस प्रकार कहने लगे । वे मुनिराज बोलते समय निर्मल वाक्यों के द्वारा उन भव्यों के हृदय में विद्यमान अन्धकार को नष्ट कर रहे थे ।।४१।। द्वितीय-धातकीखण्ड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पृथिवी के तिलक के समान पृथिवी तिलक नामका नगर प्रकाशमान है ।।४२॥ जिसका मन निर्भय था तथा जो शत्रुओं की ओर अपना ध्यान रखता था ऐसा महा पराक्रमी अभयघोष नामका राजा उस नगर का रक्षक था ॥४३।। जिस प्रकार वेला समुद्र का आभूषण होती है उसीप्रकार कनकलता नामकी कृशाङ्गी रानी उस महान् संपत्ति के धारक राजा की आभूषण थी ॥४४।।
उस नीतिमान् राजा ने जिस प्रकार पृथिवी में कोष (खजाना) और दण्ड (सेना) उत्पन्न की थी उसी प्रकार उस कनकलता रानी में जयन्त और विजय नामके दो पत्र उत्पन्न किये अभयघोष ने सुभौमनगर के स्वामी शङ्ख नामक राजा की पृथिवीषेणा नामक अन्य पुत्री के साथ विवाह कर लिया ॥४६॥ राजाओं का स्वामी अभयघोष उस नवविवाहित रानी में आसक्त हो गया और महादेवी कनकलता में विरक्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि कामी मनुष्य नव प्रिय होते हैं—नवीन स्त्री के साथ प्रेम करते ही हैं ॥४७।। पृथिवीषेणा के सौभाग्य से लुभाया हुआ राजा सुन्दर महलों की पंक्तियों तथा नवीन बाग बगीचों में उसे रमण कराता था ॥४८॥अपना सौभाग्य निःसार हो जाने
१ पुष्यन्तो नमेरवो यस्मिन् तस्मिन् मेरु विशेषणम् २ निराकुर्वन् ३ विद्यमान अज्ञानतिमिरम् ४ संमुखहृदय! ५ कृशाङ्गी ६ कोषो निधिः, दण्ड:सैन्यम् कोषश्च दण्डश्चेति कोषदण्डौ ७ राज्ञः ८ स्वामी ६ आसक्तः कृतगाढस्नेह इत्यर्थः १० राज्ञाम् ।
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