Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
१३०
श्रीशान्तिनाथपुराणम् मुनेः पात्रतया तस्य श्रद्धया च विशुद्धया । प्रात्मनो भूपतिः प्रापद्देवेभ्योऽद्भुत'पञ्चकम् ॥९॥ प्रजनं सुरसंपातासुर संपातनाम्नि सः । प्रतिष्ठत्तत्पुरोधाने निशीवप्रतिमा मुनिः ॥६॥ हिमचुलेन विद्याभिर्बाध्यमानोऽपि तत्र सा। न तत्रासाचलस्पर्यो न पचाल समाधितः॥१०॥ पृथक्त्वैकत्वमेदेन प्रध्यायाध्यात्ममञ्जसा । जित्वा स घातिकर्माणि शिश्रिये केवलथियम् ॥१०॥ देवोपकृतमश्वयं तस्याध्यात्मिकमप्यलम् । स दृष्ट्वा "वीतसंरम्भो विस्मयादित्यचिन्तयत् ॥१.२॥ नैवोपेक्षावत: किञ्चित्सिध्यतीत्यनृतं वचः । व्यजेष्टोपेक्षयवायं रागद्वेषौ च मामपि ॥१०३।। परमं सुखमम्येति निगृहीतेन्द्रियः पुमान् । दुःखमेव सुखव्याजाद्विषयार्थी निषेवते ॥१०४॥ प्रापदामिह सर्वासां जनयित्री पराक्षमा। "तितिक्षव भवेन्नृणां कल्याणानां हि कारिका ॥१०॥ इति निश्चित्य मनसा वैराग्यं समुपेयिवान् । हिमचूलस्तमानम्य भेजे दीक्षा स दीक्षितः ।।१०६॥ स चिरं संयम धृत्वा 'शतारे त्रिदशोऽभवत् । प्राणिनां गुरिणभिः साधं वैरमप्यमृतायते ॥१०७।। राजराजः समभ्येत्य पोत्रं संप्राप्तकेवलम् । सागन्ध्यात्स्फीतया भक्त्या तमान चितं सताम् ॥१०८।।
युक्त वहां के भूतषेण नामक राजा ने उन्हें दूध के आहार से संतुष्ट किया ॥६७।। मुनि की पात्रता और अपनी विशुद्ध श्रद्धा के कारण राजा ने देवों से पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ।।१८।।
निरन्तर देवों का संपात-आगमन होते रहने से जिसका सुरसंपात नाम पड़ गया था ऐसे उस नगर के उद्यान में वे मुनिराज रात्रि के समय प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे ।।१६।। यद्यपि हिमचूल ने उन्हें अपनी विद्याओं के द्वारा बहुत बाधा पहुंचायीं तो भी अचल धैर्य से युक्त होने के कारण वे भयभीत नहीं हुए और न समाधि से विचलित ही हुए ॥१००।। किन्तु पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान के द्वारा परमार्थ रूप से आत्मा का ध्यान कर तथा घातिया कर्मों को जीत कर कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त हो गये ॥१०१॥ उनके देवकृत तथा आध्यात्मिक ऐश्वर्य को अच्छी तरह देखकर हिमचूल क्रोध रहित हो गया और आश्चर्य से इस प्रकार विचार करने लगा ॥१०२।। 'उपेक्षा करने वाले जीव का कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता' यह कहना असत्य है क्योंकि इन्होंने उपेक्षा के द्वारा ही राग द्वेष को और मुझे भी जीता है ।।१०३।। जितेन्द्रिय मनुष्य उत्कृष्ट सुख को प्राप्त होता है और विषयों की इच्छा करने वाला मनुष्य सुख के बहाने दुःख का ही सेवन करता है
२०४।। इस जगत् में अक्षमा ही समस्त आपत्तियों को उत्कृष्ट जननी है और क्षमा ही मनुष्यों का कल्यार करने वाली है ॥१०५। ऐसा मन से निश्चयकर हिमचूल परम वैराग्य को प्राप्त हो गया तथा उन्हीं केवली को नमस्कार कर दिगम्बर मुद्रा का धारी होता हुआ दीक्षा को प्राप्त हो गया ।।१०६।। वक्षचिरकाल तक संयम धारण कर शतार स्वर्ग में देव हुआ सो ठीक ही है क्योंकि गुणी मनुष्यों के साथ वैर भी प्राणियों के लिए अमृत के समान पाचरण करता है ।।१०७।। राजाधिराजचक्रवर्ती ने कौटुरिक सम्बन्ध के कारण बड़ी हुई भक्ति से आकर केवलज्ञान को प्राप्त करने वाले
१ पञ्चाश्चर्याणि २ एतन्नामधेये ३ रात्री प्रतिमायोगमास्थाय ४ न भीतोऽभूत् ५ वीतक्रोधः ६ क्षमा एव ७ द्वादशस्वर्ग • अमृतमिवाचरति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org