Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशांतिनाथपुराणम् शार्दूलविक्रीडितम्
तस्मिन्विस्मयनीकान्तिसहितं वीताङ्गनासंगतं -
धयानरसानुविद्धमिव स प्राप्यातिबोध ' वपुः । युको वा त्रिसरीपदेन हृदये रत्नत्रयेणान्वमू
• ल्लीलाध्यासित सौमनस्यकुसुमः सत्सौमनस्यं सुखम् ॥१३८॥ उद्धां संयमसंपदं चिरतरं धृत्वा सहलायुधः
प्राम्भारे विधिवद्विहाय स गिरावीषत्पदादौ तनुम् ।
निकड कोऽपि दिदृक्षमारण इव तं तत्रत्यमात्मेश्वरं तत्रैव त्रिदशेश्वरः समभवत्कान्तप्रभाकारितः ॥ १३२ ॥
इत्यसगकृतौ शान्तिपुराणे वज्रायुधस्य ग्रैवेयकसौमनस्यसंभवो नाम * दशमः सर्गः *
वहां वे आश्चर्यकारक कान्ति से सहित स्त्रियों के समागम से रहित तथा धर्म्यध्यान के रसा से परिपूर्ण अत्यन्त शुक्ल शरीर को प्राप्त कर वक्षःस्थल पर पड़े हुए तीन लड़ के हार से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों हृदय में स्थित रत्नत्रय से ही सुशोभित हो रहे हों । लीलापूर्वक सौमनसवन के पुष्पों को धारण करने वाला वह श्रहमिन्द्र वहां देवों के उत्तम सुख का उपभोग करने लगा ।।१३८ ।। सहस्रायुध ने चिरकाल तक श्रेष्ठ संयम रूपी संपदा को धारण कर ईषत्प्रागभार नामक पर्वत पर विधिपूर्वक शरीर का त्याग किया । यद्यपि वे काङक्षा से रहित थे तो भी वहां अपने स्वामी वज्रायुध को देखने की इच्छा करते हुए के समान उसी उपरिम ग्रैवेयक में कान्तप्रभ नामके हमिन्द्र हुए ।। १३६ ॥
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इस प्रकार महाकवि 'असग' द्वारा विरचित शान्ति पुराण में वज्रायुध के प्रवेयक गमन का वर्णन करने वाला दशम सर्ग समाप्त हुआ ।
१ अतिशुक्लं २ सुमनसां देवानामिदं सौमनस्यम् ३ प्रशस्ताम् ।
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