Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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नवमः सर्गः
११५ नाहमित्युदयन्बोधो धर्मो देहस्य युज्यते । तस्य प्रत्यक्षभावे हि तत्प्रत्यक्षत्वसंगतिः ॥१२३॥ तदप्रत्यक्षतायां वा सा तस्याप्यनुषज्यते । तद्देय स्पर्शरूपादिस्वभावो वा निरङ कुशः ॥१२४॥ विषावहर्ष संत्राससुखदुःखादिवर्तनैः । वर्तमानमथात्मानमेकमीक्षामहे पृथक् ॥१२५।। ईक्षन्ते देहिनो देहं स्वान्यप्रत्यक्षगोचरम् । अनुमानात्परात्मानमपि सर्वे परीक्षकाः ॥१२६।। २व्याहृतिव्याप्ती स्वस्मिन्वाक्काया वाप्तजन्मनी। प्रभवन्स्यौ विनात्मानमुच्छवासादिगुरणारच ये।१२७॥ दृश्यमानाः परत्रापि परात्मास्तित्वसाधनाः । "प्रेक्षावतां नयां प्रेक्षाप्रत्यक्ष सानुमा मता ॥१२८।। अध्यक्षादत एवास्ति मानान्तरमितोऽपि च । साभासाध्यक्षमानत्वमङ्गरावङ्गवासिनाम् ॥१२॥ अध्यक्षस्यापि मानत्वमथ पर्यनुयोगतः । तस्यात्मेतरसद्भावज्ञानभावे भवो यता॥१३०।।
विवेकी विद्वान् निराकरण करेगा? अर्थात् कोई नहीं ।।१२२।। 'मैं हूं' इस प्रकार उत्पन्न होने वाला ज्ञान शरीर का धर्म तो हो नहीं सकता क्योंकि ज्ञान स्वसंवेदन का विषय होने से प्रत्यक्ष है यदि उसे शरीर का धर्म माना जाय तो शरीर में भी स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्षता होनी चाहिये जो कि है नहीं ॥१२३।। यदि शरीर में अप्रत्यक्षता है तो उसका धर्म जो ज्ञान है उसमें भी अप्रत्यक्षता होनी चाहिये अथवा शरीर का धर्म जो लम्बाई तथा स्पर्श रूपादि है वह उस ज्ञान में भी निर्वाध रूप से होना चाहिये, जो कि नहीं है ।।१२४।। चूकि विषाद, हर्ष, भय, सुख, दुःख आदि वृत्तियाँ सब की पृथक पृथक् होती हैं इसलिये हम आत्मा को पृथक् पृथक् देखते हैं । भावार्थ-जीवत्व सामान्य की अपेक्षा सब जीव एक भले ही कहे जाते हैं परन्तु सुख दुःख आदि का वेदन सब का पृथक् पृथक् है इसलिये सब जीव पृथक् पृथक् हैं ।।१२५।। जो स्व और पर-दोनों के प्रत्यक्ष का विषय है ऐसे जीव के शरीर को सब देखते हैं परन्तु समस्त परीक्षक जन अनुमान से दूसरे की आत्मा को भी देखते हैं । भावार्थअपनी आत्मा का सब को स्वानुभव प्रत्यक्ष हो रहा है तथा शरीर निज और पर को प्रत्यक्ष दिख रहा है। साथ ही पर के शरीर में आत्मा है इसका ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है ।।१२६॥ अपने आप में तथा शरीर से उत्पन्न होने वाले जो वचन और काय के व्यापार हैं वे आत्मा के बिना नहीं हो सकते । इसी प्रकार जो श्वासोच्छ्वास आदि गुण दूसरे के शरीर में दिखाई देते हैं वे भी प्रात्मा के बिना नहीं हो सकते अतः वे दूसरे की आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने वाले हैं। बुद्धिमान् मनुष्यों का जो यह विवेक अथवा स्वसंवेदन पूर्वक प्रत्यक्ष है वह अनुमान माना गया है ॥१२७-१२८।। कभी कदाचित् इसी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से दूसरा अनुमान भी हो सकता है परन्तु वह शरीर धारी प्राणियों का प्रत्यक्षाभास प्रमाण कहा जाता है । तो फिर इस प्रत्यक्ष को भी प्रमाणता कैसे आवेगी ? ऐसा यदि पूछा जाय तो उसका समाधान यह है कि वह प्रत्यक्ष, आत्मा तथा अन्य पदार्थ इनके अस्तित्व का ज्ञान होने पर ही उत्पन्न हुआ है अतः प्रमाण है ।।१२६-१३०॥* (?)
१ निर्बाधः २ वचनकायव्यापारी ३ वाक्कायाभ्याम् अवाप्त जन्म याभ्यां ते ४ बुद्धिमताम् ।
इन श्लोकों का सम्दार्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है अतः पं० जिनदासजी शास्त्री की मराठी टीका के आधार पर लिखा है । सं.
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