Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशांतिनाथपुराणम् पोष्टुः प्रणिपातेन रोषः अष्टस्य नश्यति । उपादि प्रसादोऽपि स्थितश्चास्मा यात्मकः ॥१३१॥ अविच्छिन्न यात्मात्मा सर्वैरेव परीक्षकः । प्रारम्यानुभवात्स्पष्टादामृतेरनुभूयते ॥१३॥ तस्य त्रयात्मना छित्तेरन्यथानुपपत्तितः । भूतभव्यभवद्भाविपर्यायानन्ततागतिः ॥१३३॥
उपातं मयंपर्यायं त्यक्त्वात्मान्यमुपाश्नुते । पर्यायं परलोकोऽपि 'ध्रौव्योदयलयस्थितिः ॥१३४॥ कि चानुसूयमामात्मसुखदुःखादिचित्रता । सहशाध्यायसेवानामष्टमनुमापयेत् ।।१३।। "तई विव्यगतिश्चापि "दृष्टवैचित्र्यकार्यतः। 'अचित्रात्कारमात्कार्य 'चित्रं नोत्पत्तिमहति ।।१३६।। उत्पत्तावदयात्सर्व जगदापद्यते बलात् । न चायाज्जगद्य क्तं प्रमाणविनिवृत्तितः ॥१३॥ विनित्तिः प्रमाणानां नियतेनात्मना बिना । नियमश्चात्मनो मेवादन्योन्यस्माद्विना कथम् ॥१३॥ किं चानियमने मानं स्यावसत्यं विपर्ययात् । नो °मानासत्यता युक्ता लोकद्वयविलोपतः ॥१३६।।
यदि गाली देने वाला व्यक्ति नम्र हो जाता है तो जिसे गाली दी गयी थी उसका क्रोध नष्ट हो जाता है और प्रसन्नता भी उत्पन्न हो जाती है, आत्मा दोनों अवस्थाओं में रहता है इससे प्रतीत होता है कि जीवतत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन रूप है ।।१३१॥
जो निर्वाध रूप से उत्पादादि तीन रूप है ऐसा यह आत्मा सभी परीक्षकों के द्वारा प्रारम्भ से लेकर मरण पर्यन्त स्पष्ट अनुभव से अनुभूत होता है ।।१३२।। उस आत्मा का उत्पादादि तीन की अपेक्षा जो भेद है वह अन्यथा बन नहीं सकता इसलिये भूत भविष्यत् और वर्तमान पर्यायों का अनन्तपना सिद्ध होता है ।।१३३।। यह यात्मा ग्रहण की हुई मनुष्य पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय को प्राप्त होता है इसलिये परलोक भी सिद्ध होता है और उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य-इन तीन की भी सिद्धि होती है ॥१३४।। समान अध्ययन और समान सेवा करने वाले मनुष्यों के जो अपने सुख दुःख आदि की विचित्रता है वह उनके अदृष्ट-कर्मोदय का अनुमान कराती है ॥१३५।। चूकि कार्यों में विचित्रता देखी जाती है इसलिये उसके कारणभूत अदृष्ट की विचित्रता भी सिद्ध होती है क्योंकि समान कारण से विभिन्न कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती ॥१३६।। अद्वैत से यदि संपूर्ण विश्व की उत्त्पत्ति होती तो समस्त जगत् हठात् युगपत् होना चाहिये क्योंकि अद्वैत के अक्रमरूप होने से क्रमवर्ती जगत् की उत्पत्ति संभव नहीं है । फिर अद्वत से जगत् की उत्पत्ति मानने पर प्रमाण के अभाव का प्रसङ्ग आवेगा । क्योंकि प्रमाण के मानने पर उसके विषयभूत प्रमेय को भी मानना पड़ेगा और उस स्थिति में प्रमाण तथा प्रमेय का त हो जायगा ।।१३७॥ आत्मतत्त्व न माना जाय तो प्रमाण का अभाव हो जायगा इसलिये आत्मतत्त्व को मानना ही श्रेयस्कर है। आत्मतत्त्व मानकर भी उसे परस्पर-दूसरी आत्मा से भिन्न न माना जाय तो उसका नियम भी कैसे सिद्ध हो सकता है ? ॥१३८।। दूसरी बात यह है कि आत्मा का नियम न मानने पर विपर्यय के कारण प्रमाण असत्य हो जायगा और प्रमाण की असत्यता मानना उचित है नहीं क्योंकि वैसा करने पर प्रमाण में असत्यता प्रा
१ कुवचन प्रयोक्तु: २ कुपितस्य ३ अविच्छिन्न निर्वाधं यद् त्रयम् उत्पादादिक त्रितयं तत् आत्मा स्वरूपं यस्य तथाभूत: ४ गृहीतम् ५ध्रौव्योत्पादव्ययस्थितिः ६ सस्य अदृष्टस्य वैचित्यं नानात्वं तस्य गति। सिद्धिः ७ दृष्ट प्रत्यक्षीभूतं वैचित्र्यं नानात्वं यस्य, तथाभूतं यत्कार्य तस्मात् ८ एकरूपात् ह नानारूपं १० मानस्य प्रमाणस्य असत्यता मानासत्यता ।
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