Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् सिंहासनस्थमानम्य गुरुं त्रिमगतां गुरुम् । तत्प्रेमगर्भया दृष्टया मुहुईष्टः स निर्ववौ' ॥१५॥ तवान्योन्यस्य वदतां मूभृतां बदनात्प्रभुः। तस्यावदान'माकर्ण्य मुरा स्मेराननोऽभवत् ।।६।। किञ्चित्कालमिव स्थित्वा तत्र पित्रा विसजितः । युवेशः स्वगृहं गत्वा स यथेष्टमचेष्टत ॥१७॥ प्रथान्यदा महाराजो नत्वा लोकान्तिकामरैः । बोध्यते स्म प्रबुद्धोऽपि वपसे स्वनियोगतः ॥६८।। पित्रा मुमुक्षुरणा दत्तं वने वज्रायुषस्तवा । भास्वरं मुकुट मूनि शिक्षावाक्यं च चेतसा ॥१६॥ स पनि.क्रमणकल्याणमनुभूयेन्द्रवृन्दतः । प्रावाजीत्तत्पुरोधाने नत्वा सिद्धानुदङ मुखः ॥१०॥ अथ सिंहासने पत्र्ये स्थित्वा वज्रायुधो बभौ। प्रकृतिप्रकृतालोको लोकपालवदीक्षितः ॥१०१।। नमता मुकुटालोनिचिता स्तरसभाभुवः । विद्य द्विद्योतिताम्भोवलीलां दधुरिव क्षरणम् ॥१०२।। स्वयुक्तकारितां राजा प्रथयग्विनयान्विते। स सहस्रायुधे सूनो यौवराज्यमयोजयत् ॥१०३।। मिले विरोधिनी बिभ्रदपि प्रशमतेजसी । स चित्रमकरोद्धात्री मविरुद्धक्रियाफलाम् ॥१०४।।
नमस्कार कर उनकी प्रेमपूर्ण दृष्टि के द्वारा बार बार देखा गया युवराज अत्यधिक प्रसन्न हो रहा था ॥६५॥ उस समय परस्पर कहने वाले राजाओं के मुख से युवराज के पराक्रम को सुन कर प्रभुतीर्थकर परम देव हर्ष से मुसक्याने लगे ।।६६।। वहां कुछ समय तक ठहर कर पिता से विदा को प्राप्त हुआ युवराज अपने घर जाकर इच्छानुसार चेष्टा करने लगा ।।७।।
अथनन्तर क्षेमंकर महाराज यद्यपि स्वयं प्रबुद्ध थे तथापि लौकान्तिक देवों ने अपना नियोग पूरा करने के लिये उन्हें नमस्कार कर तप के लिये संबोधित किया ॥१८॥ उस समय युवराज वज्रायूध ने मोक्षाभिलाषी पिता के द्वारा दिये हुए देदीप्यमान मुकुट को मस्तक पर और शिक्षा वाक्य को हृदय में धारण किया ॥६६॥ क्षेमंकर प्रभु इन्द्र समूह के द्वारा किये हुए दीक्षा कल्याणक का अनुभव कर उसी नगर के उद्यान में उत्तरमुख विराजमान हो तथा सिद्धों को नमस्कार कर दीक्षित हो गये ॥१०॥
तदनन्तर जो स्वभाव से ही प्रकाश को करने वाला था अथवा मन्त्री आदि प्रजा के लोग जिसका जयघोष कर रहे थे और जो लोकपाल के समान दिखाई देता था ऐसा वज्रायुध पिता के सिंहासन पर स्थित होकर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥१०१॥ नमस्कार करने वाले राजाओं के मुकूट सम्बन्धी प्रकाश से व्याप्त उसकी सभाभूमियां क्षण भर के लिये ऐसी जान पड़ती थीं मानों बिजली से प्रकाशित मेघ की ही लीला को धारण कर रही हों ॥१०२॥ अपनी युक्तकारिता कोमैं विचार कर योग्य कार्य करता हूं इस बात को विस्तृत करते हुए राजा वज्रायुध ने अपने पुत्र सहस्रायुध पर युवराज पद की योजना की थी। भावार्थ-वज्रायुधने अपने पुत्र सहस्रायुध को युवराज बना दिया ।।१०३।। परस्पर विरोधी प्रशम और पराक्रम को धारण करते हुए भी उसने पृथिवी को अविरुद्ध-विरोध रहित क्रिया के फल से युक्त किया था, यह आश्चर्य की बात थी॥१०४॥
१संतुष्टोऽभूत् २ राज्ञाम् ३ पराक्रमम् ४ मन्दस्मितयुक्त मुख: ५ दीक्षाकल्याणम् ६ उत्तरमुखः ७ व्याप्ताः ८ पृथिवीम् ।
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