Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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अष्टमः सर्गः
६७ इति धर्मकवाभिस्तो चिरं स्थित्वा महामुनी । तिरोऽभूतां नपेन्द्रोऽपि न्यविक्षत नेपालयम् ॥१५॥ खेचरक्ष्माचराधीशो पुरे तो रथमपुरे। 'समोयिवांसो ग्रीष्मतों बाह्योद्याने विजह्रतुः ॥१५॥ ऐक्षिषातां मुनी तत्र पिण्डीमतले स्थिती । मत्यन्तविपुलं नाम बिभ्राणो विमलं च तौ ॥१५२॥ विखरोकृत्य तत्पादान्पूर्व मुकुटरश्मिभिः । स्वहस्तावचितैः पुष्पैः पश्चादामर्चतुरच तो॥१५॥ अपृच्छतामथायुः स्वं तो भन्यौ तन्मुनिद्वयम् । वार्षक्याद्विषयासक्तिं शिथिलीकृत्य पार्थिवी ॥१५४॥ पत्रिंशद्धिविमान्यायुर्विद्यते भवतोस्ततः । कुरतं स्वहितं शीघ्र यती तावित्यवोचताम् ॥१५५।। शास्वाभिनन्दनात्कृत्यमा सिषातामुबड मुखम् । 'प्रायोपवेशनं वीरो हृदि कृत्वा जिनं च तो ॥१५६।। ततोऽधित निजं राज्यं खेचरेन्द्रः सुतेजसि । सूनी श्रीदत्तनाम्नि स्वे श्रियं श्रीविजयोऽप्यसौ ॥१५७।। विशुद्धात्मा निराकाडमास्तस्यौ खेचरनायका। प्राचकाङ्क्षाप्रबुद्धात्मा क्षितीशः पैतृकं पदम् ॥१५८।। इति प्रायोपवेशेन तनुं हित्वा यथागमम् । प्रानताख्यं ततः कल्पं तेमाप्यमिततेजसा ॥१५॥ नन्द्यावर्ते विमानेऽथ नादीनावाभिनन्दिते । प्रादित्यचूल इत्यासीद्वालावित्यप्रभः सुरः ॥१६॥
कह कर जब मुनि विरत हुए तब समस्त सभा हर्ष विभोर होकर तप के फल की प्रशंसा करने लगी ॥१४६।। इस तरह वे महामुनि-देवगुरु और अमरगुरु धर्मकथाएं करते हुए वहां चिरकाल तक ठहर कर अन्तर्हित हो गये और राजा भी अपने राज महल में रहने लगा ॥१५०।।
एक बार विद्याधर राजा तथा भूमिगोचरी राजा-दोनों ही रथनूपुर में मिले । वहां वे ग्रीष्म ऋतु के समय बाह्य उद्यान में घूम रहे थे ।।१५१॥ वहां उन्होंने अशोक वृक्ष के नीचे स्थित विपुलमति और विमलमति नामको धारण करने वाले दो मुनि देखे ॥१५२।। उन्होंने पहले मुकुट की किरणों से उनके चरणों को पीला किया पश्चात् अपने हाथ से तोड़े हुए पुष्पों से उनकी पूजा की ॥१५३।। तदनन्तर उन दोनों भव्य राजाओं ने वृद्धावस्था के कारण विषयासक्ति को शिथिल कर मुनि-युगल से अपनी आयु पूछी ।।१५४॥ आप दोनों की आयु छत्तीस दिन की है इसलिये शीघ्र ही अपना हित करो, ऐसा उन मुनियों ने उनसे कहा ।।१५५।। वे दोनों वीर अभिनन्दन नामक आचार्य से करने योग्य कार्य को ज्ञात कर हृदय में संन्यास तथा जिनेन्द्र भगवान् को धारण कर उत्तरमुख बैठ गये ॥१५॥ विद्याधर राजा-अमिततेज ने अपना राज्य सुतेजस नामक अपने पुत्र को सौंपा था और श्रीविजय ने भी अपनी लक्ष्मी श्रीदत्त नामक अपने पुत्र को प्रदान की थी॥१५७।। विशुद्ध आत्मा वाला विद्याधर राजा तो सब प्रकार की आकांक्षाओं को छोड़कर बैठा था परन्तु अप्रबुद्ध आत्मा वाला पृथिवीपति- श्रीविजय पिता के पद की आकांक्षा करता रहा ।।१५८॥
तदनन्तर आगमानुसार संन्यास के द्वारा शरीर छोड़कर अमिततेज ने प्रानत नामका स्वर्ग प्राप्त किया ॥१५६।। वहां वह माङ्गलिक शब्दों से प्रशंसित नन्द्यावर्त विमान में प्रातः काल के सूर्य के समान आभा वाला आदित्यचूल नामका देव हुप्रा ।।१६०॥ और राजा श्रीविजय उसी प्रानत
१ मिलितौ २ अशोकवृक्षतले ३ विपुलमतिः, विमलमतिः, ४ उपविष्टौ बभूवतुः ५ उत्तरदिशाभिमुखं यथास्पात्तथा ६ प्रायोपगमनसंन्यासं ।
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