Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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अष्टमः सर्गः समनचक्रवासीद्धरतो नाम भारते। अस्मिन्विस्मयनीयश्रीः स चाद्यश्चक्रवतिनाम् ॥१२६।। योऽभूत्तस्य सुतो नाम्ना मरीचिरिति विश्रुतः । पर्याटीत्स चिरं कालं संसारे सारजिते ॥१३०॥ मगधेषु 'जनान्तेषुः पुरे राजगृहाभिधे। विश्वभूतेर्जयिन्याः स विश्वनन्दी सुतोऽभवत् ॥१३१।। विशाखमूतावनुजे महाराज्यं महात्मनि । मुमुक्षुयौवराज्यं च स तस्मिस्तनये म्यधात ॥१३२॥ भेजे श्रीधरमानम्य दीक्षां जैनेश्वरों पराम् । कृत्वा कर्मक्षयं प्रापत्स शान्तं पदमव्ययम् ॥१३३॥ तोको विशाखभूतेश्च लक्ष्मणायाःसुतोऽजनि । ज्यायान्विशाखनन्दीति प्रत्ययाख्यातिमीयिवान् ॥१३४॥ बनं सर्वतुं सम्पन्नं दृष्ट्वा श्रीविश्वनन्दिनः । पितरं प्रार्थयामास जनयित्रीमुखेन तत् ॥१३॥ प्राग्ज्योतिष्येश्वरं हन्तुस प्रस्थाप्य युवेश्वरम् । ततोऽदित स्वपुत्राय तद्वनं कल्पितावनम् ॥१३६।। यथावेशं समापग्य वत्कृत्यं विश्वनन्दिना । विनिवृत्तं ततस्तेन तरसा विश्वनन्दिना ॥१३७।। वनापहरणक्रोधात्तेनामाजि न भूपतिः । शिलास्तम्भः कपित्थश्च लाक्ष्मणेयोऽप्यमाजि सः ॥१३॥ विशाखनन्दिनं भीतमहत्वा तं दयाद्रं धीः । पितृव्येण समं वीक्षा स 'संभूतान्तिकेऽग्रहीत ॥१३॥
चक्रवर्ती था । जो आश्चर्य कारक लक्ष्मी से सहित था तथा चक्रवतियों में पहला चक्रवर्ती था ।।१२।। उनका जो मरीचि इस नाम से प्रसिद्ध पुत्र था वह असार संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥१३०।। पश्चात् मगध देश के राजगृह नगर में राजा विश्वभूति की स्त्री जयिनी के वह विश्वनन्दी नामका पुत्र हुआ ।।१३।। मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक राजा विश्वभूति ने अपना विशाल राज्य महान् आत्मा विशाखभूति नामक छोटे भाई पर रक्खा और युवराज पद अपने पुत्र के लिये दिया ॥१३२॥ पश्चात् श्रीधर मुनिको नमस्कार कर जिन दीक्षा धारण की और समस्त कर्मों का क्षय कर अविनाशी शान्तपद-मोक्ष प्राप्त किया ॥१३३॥
तदनन्तर विशाखभूति की स्त्री लक्ष्मणा के ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ जो विशाख नन्दी इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हा ॥३४॥श्री विश्वनन्दी के सब ऋतुओं से संपन्न वन को देख कर उसने माता के द्वारा पिता से प्रार्थना करायी कि वह वन मुझे दिला दिया जाय ॥१३५॥ पिता ने प्राग्ज्योतिष नगर के राजा को मारने के लिये युवराज को बाहर भेज दिया। पश्चात् वह संरक्षित वन अपने पुत्र के लिये दे दिया ।।१३६।। इधर सब को आनन्दित करने वाला विश्वनन्दी जब राजा की आज्ञानुसार कार्य समाप्त कर वेग से लौटा तब उसने वनाप हरण के क्रोध से राजा की सेवा नहीं की तथा शिला का स्तम्भ कपित्थ का वृक्ष और लक्ष्मणा के पुत्र विशाख नन्दी को भग्न किया। भावार्थ-दूतों के
व नन्दी को वनाप हरण का समाचार पहले ही मिल गया था इसलिये जब वह वापिस आया तब राजा से नहीं मिला । सीधा वन में गया और विशाखनन्दी को मारने के लिये तत्पर हुआ। विशाख नन्दी भागकर एक पाषाण के खम्भे के पीछे छिपा परन्तु विश्वनन्दी ने वह खम्भा तोड़ डाला वहां से भाग कर विशाख नन्दी एक कैंथा के वृक्ष पर जा चढ़ा परन्तु विश्व नन्दी ने उसे भी उखाड़ दिया ॥१३७-१३८।। पश्चात् दया से जिसकी बुद्धि पार्द्र थी ऐसे विश्व नन्दी ने भयभीत विशाख
१ देशेषु २ युवराजम् । कृतरक्षणम् ४ न लेवितः ५ लक्ष्मणाया अपत्यं पुमान् नाक्ष्मणेयः विशाखनन्दी ६ संभूतनामकमुनिराजसमीपे ।
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