Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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अष्टमः सर्गः
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तस्याभूत्सिहनन्दापि श्रीदेवाख्यस्य वल्लभा । निदानादनुयान्तो तं तृतीयभववल्लभम् ॥१०६।। बभूवानिन्दितार्योऽपि 'स्वजीवितविपर्यये । स तस्मिन्नेव गीर्वाणो विमाने विमलप्रभे ॥१०७।। सत्यापि सुप्रभानाम्नी देवी भूत्वा मनोरमा। अन्वनषोत्तमेशसौ स्वकान्तममितप्रभम् ॥१०॥
जयसंगतं भूरि श्रीदेवममितप्रमः । अन्ववर्तत कुर्वाणो गीर्वाणेशमिवापरम् ॥१०॥ तत्र कालमनेषोस्त्वं पलितोपमपञ्चकम् । जिनमभ्यर्चयन्भक्त्या सुरसौख्यं च निर्विशन् ॥११०॥ पुरा रत्नपुरं राजा योऽशिषत्रिदिवच्युतम् । अवगच्छात्र संभूतं तं त्वममिततेजसम् ।।१११।। सा चेयं सिंहनन्दापि 'तवेदानीतनी प्रिया। त्रिपृष्टतनया भूत्वा वर्तते स्वनिदानतः ॥११२।। अनिन्विताप्यभूदेषा ज्ञातिः श्रीविजयस्तव। सुतारां च प्रतीहि त्वं तां सत्यां सात्यके: सुताम् ।।११३।। त्वया निर्वासितो यश्च श्रीषणत्वमुपेयुषा। स खेचरेन्द्रः संसारे पर्याटोत्कपिलश्चिरम् ॥११४॥ स भूतरमणाटव्यामन्वैरावति विद्यते । प्राधमस्तापसा यत्र निवसन्ति कृतोटजाः ॥११॥ अभवत्तापसस्तत्र कौशिकः कुशसंग्रही। अरुन्धती च तद्भार्या सच्चारित्रं निरुन्धती ॥११६।। अन्योन्यासक्तयोनित्यं स तयोस्तनयोऽभवत् । मृगशङ्ग इति ख्यातः समृगाजिनवल्कलः ।।११७॥
उसी श्रीदेव की प्रिया हुई ॥१०६।। अनिन्दिता का जीव जो उत्तर कुरु में आर्य हुआ था वह भी मरण होने पर उसी सौधर्म स्वर्ग के विमलप्रभ विमान में देव हुआ ॥१०७॥ सत्यभामा भी जो उत्तर कुरु में आर्या हुयी थी सुप्रभा नामकी सुन्दर देवी होकर अपने पति उसी अमितप्रभ देव का अनुनय करने लगी ॥१०८।। अमितप्रभ देव बहुत भारी मित्रता करता हुआ श्रीदेव के साथ रहता था मानों वह उसे दूसरा इन्द्र ही समझ रहा था ॥१०६।। वहाँ तुमने भक्ति से जिनेन्द्र देव की पूजा करते तथा देवों का सुख भोगते हुए पांच पल्य प्रमाण काल व्यतीत किया ॥११०॥ पहले जो श्रीषेण राजा र पालन करता था उसे ही तुम स्वर्ग से च्युत होकर यहां उत्पन्न हुआ अमिततेज जानो ॥१११।। वह सिंहनन्दा भी अपने निदान दोष से त्रिपृष्ठ की पुत्री होकर तुम्हारी इस समय की स्त्री स्वयंप्रभा हुई है ।।११२॥
यह अनिन्दिता भी तुम्हारा पुत्र श्री विजय हुयी है । तथा सुतारा को तुम सात्यकि को पुत्री सुतारा जानो ॥११३॥ श्रीषेण राजा की पर्याय में तुमने जिस कपिल को निर्वासित किया था। वह विद्याधरों का राजा होकर संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ॥११४।। भूतरमण नामक अटवी में ऐरावती नदी के तट पर एक पाश्रम है जिसमें तापस पर्ण शालाएं बना कर निवास करते हैं ॥११५॥ उसी आश्रम में कुशों का संग्रह करने वाला एक कौशिक नामका तापस रहता था समीचीन चारित्र को रोकने वाली अरुन्धती उसकी स्त्री थी ॥११६।। निरन्तर परस्पर आसक्त रहने वाले उन दोनों के वह कपिल का जीव मृगशृङ्ग नामसे प्रसिद्ध पुत्र हुआ। यह मृगशृङ्ग मृग चर्म तथा वल्कलों को धारण करता था ॥११७।। जो बाल अवस्था में ही जटाधारी हो गया था तथा साफ
१ स्वमरणे २ सत्यभाषापि ३ असण्डमैत्रीम् ४ पञ्चपल्यपर्मनां ५ भुजानः सनु ६ इदानींभवा इदानींतनीं ।
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