Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम् प्रयोद्योगं रिपोः श्रुत्वा दमितारिविहस्य सः । स्वर्यतामिति सेनान्यं संग्रामायादिशत्तदा ॥३॥ कोरणाघातस्ततो भेरी ताड्यमानापि संततम् । नोच्चदध्यान मोतेव जिगीषोरपराजितात ॥४॥ एवं सांसामिको मेरी ताडिता. चक्रवर्तिनः । कः सपत्न इति ध्यायन् जन: शुश्राव तद्ध्वनिम् ।।५।। स 'सानहनिकं शंख पूरयित्वा त्वराग्वितः । चतुरंगां ततः सेना संभ्रान्तां समनीनहतः।६।। प्रास्थानाल्लीलया गत्वा स्वावासान्खेचरेश्वराः । प्रकाण्डं रणसंक्षोभादपि स्वरमदंशयन् ।।८।। नकोटद्वितयं हन्तुं दमितारेरपि प्रभोः । प्रायासं पश्यतेयन्तमिति कश्चिद्मटोऽहसत् ॥८॥
प्रामुक्तवर्मरत्नांशुसूचिमिळद्य तन्भटाः । प्राचिता इव तन्मुक्तदूरापातिशरोत्करः ॥६॥ भनेको बलसंघातो हन्तुं द्वावेव यास्यति । मनस्वी धिग्धिगित्येको तनुवारणमग्रहीत् ॥१०॥ कि नामासौ रिपुः को वा कियत्तस्य बलं महत् । चक्रवर्त्यपि स भ्रान्तः किं सत्यमपराजितः ॥११॥ कि सेम नगरं रुद्ध भटा ब्रूतेति विक्लवा! । 'प्रतिरन्यं यतः सैन्यान् पृच्छन्ति स्म जनोजनाः ॥१२॥ मालोक्यौत्पातिकान्केतून् विवापि स्पर्द्ध येव तैः । मुदोच्चिक्षिपरे सैन्यैः केतको गगनस्पृशः ॥१३॥
अथानन्तर शत्रु का उद्योग सुन कर दमितारि हंसा और उसने उसी समय सेनापति को आदेश दिया कि युद्ध के लिये शीघ्रता की जाय ॥८३।। तदनन्तर दण्डों के प्रहार से निरन्तर ताडित होने पर भी भेरी जोर से शब्द नहीं करती थी इससे ऐसी जान पड़ती थी मानों वह जिगीषु राजा अपराजित से भयभीत ही हो गयी थी ॥५४॥ इस प्रकार संग्राम की भेरी बजायी गयी तथा चक्रवर्ती का शत्र कौन है ? ऐसा विचार करते हुए लोगों ने उसका शब्द सूना ।।८।। तदनन्तय शीघ्रता से युक्त सेनापति ने युद्ध सम्बन्धी शंख फूक कर हड़बड़ायी हुई चतुरंग सेना को तैयार किया ॥८६॥ विद्याधर राजाओं ने सभा से लीला पूर्वक अपने घर जाकर असमय में युद्ध की हलचल होने पर भी स्वेच्छा से धीरे धीरे कवच धारण किये थे ।।८॥ दो नरकीटों-क्षुद्र मनुष्यों को मारने के लिये राजा दमितारि का भी इतना प्रयास देखो, इस प्रकार कोई योद्धा हंस रहा था ।।८।।धारण किये हुए कवचों में संलग्न रत्नों की किरणावली से योद्धा ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों वे अपराजित के द्वारा छोड़े हुए दूरपाती वारणों के समूह से ही व्याप्त हो रहे हों ।।८६॥ अनेक सेनाओं का समूह मात्र दो को मारने के लिये जावेगा धिक्कार हो धिक्कार हो ऐसा कह कर किसी पानीदार योद्धा ने कवच धारण नहीं किया था ।।१०।। शत्रु किस नाम वाला है अथवा उसका महान् बल कितना है ? इस विषय में चक्रवर्ती भी भ्रान्त है-भ्रांति में पड़ा हुआ है। क्या सचमुच ही वह अपराजित-अजेय है ? ||६|| योद्धाओं! बतायो तो सही उसने क्या नगर को घेर लिया है जिससे प्रत्येक गली में सैनिक छा रहे हैं इस प्रकार घबड़ाये हुए स्त्री पुरुष सैनिकों से पूछ रहे थे ।।१२।। दिन में भी उत्पात को सूचित करने वाले केतु-पुच्छली तारों को देख कर उन सैनिकों ने हर्ष से गगनचुम्बी केतु-पताकाएं फहरा दी थीं ॥६३|| याचकों के लिये सर्वस्व देकर तथा अपने अपने कुल की ध्वजाओं को उठा कर पागे का स्थान प्राप्त करने की इच्छा से शूरवीरों ने शीघ्र ही प्रस्थान
१ युद्धसम्बन्धिनं २ धृत-३ कवचम् ४ रथ्यां रथ्या प्रति इति प्रतिस्थ्यम् ।
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