Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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सप्तमः सर्ग:
८१
प्रयमुद्विजितु कालस्त्याहशा न महात्मनाम् । विज्ञातेऽपि रिपोः स्थाने कि यूयं नाध्यवस्यथ ॥८६॥ सा व्यरंसोदुदीर्येवं मध्येसभमिदं वचः । स्त्रीजनोऽपि कुलोद्भूतः सहते न पराभवम् ॥७॥ ततोऽवित नरेन्द्राय स तस्मै खेचरेश्वरः । विद्या हेतिनिवारिण्या समं 'बन्धविमोचिनीम् ॥८॥ प्रसाधितमहाविद्य कृत्वा साभिसरं सुतः । प्रजिघायाम्यमित्रं तं त्वरमारणं रणाय सः॥८६॥ महाज्वालाभिधां विद्यामयात्सापयितुंच सः । सहस्ररश्मिना साधं ह्रीमन्तमचलं स्वयम् ॥१०॥ तत्र विद्यां वशीकृत्य स्वसत्त्वेन स सत्त्वरम् । तयवानुद्रुतोऽयासीत्ततश्चञ्चां रिपोः पुरीम् ॥१॥ विद्यया बहुरूपिण्या भ्रामर्या च समन्ततः । प्रात्मानं कोटिशः कृत्वा वितत्य गगनस्थलम् ॥२॥ युद्धयमानं नरेन्द्रेण तमिन्द्राशनिसंभवम् । अद्राक्षीत्सोऽपि चाच्छत्सीत्तद्विधा स्वस्य विद्यया ॥१३॥ अवध्यमानमन्येषां विद्यास्त्रं वीक्ष्य विव्यथे। प्रासुरेयो जितान्योऽपि स शूरः शूरभीकरः ॥१४॥ देहमात्रावशेषोऽथ क्षीणविद्याविभूतिका । प्रातस्ताराविमुक्तेन गगनेन समोऽभवत् ॥१५॥ स्वं 3रिरक्षिषया वेगाननाशाशनिघोषकः । पांसुलस्याथवा चित्तं निसर्गतरलं कियत् ।।६६॥
को भीतर रोक कर उसने इस प्रकार कहा ।।८५॥ यह आप जैसे महान् आत्माओं के उद्विग्न होने का
नहीं है। शत्रु का स्थान जान लेने पर भी प्रापं लोग निश्चय क्यों नहीं कर रहे हैं।॥८६।। इस प्रकार सभा के बीच में यह वचन कह कर वह विरत हो गयी । ठीक ही है क्योंकि कुलीन स्त्रियां भी पराभव को सहन नहीं करती हैं ।।८७।।
तदनन्तर विद्याधर नरेश ने राजा श्री विजय के लिये हेतिनिवारिणी-शस्त्रों को रोकने वाली विद्या के साथ बन्ध विमोचिनी-बन्ध से छुड़ाने वाली विद्या दी ॥८॥ तदनन्तर जो विद्या सिद्ध कर चुका था और युद्ध के लिये शीघ्रता कर रहा था ऐसे श्रीविजय को उसने अपने पुत्रों के साथ शत्रु के सन्मुख भेजा ॥८६॥ और स्वयं वह महा ज्वाला नामक विद्या को सिद्ध करने के लिये सहस्ररश्मि के साथ ह्रीमन्त पर्वत पर गया ।।१०।। वहां अपने धैर्य से शीघ्र ही विद्या सिद्ध कर उसी विद्या से अनुगत होता हुआ वह वहां से शत्रु की चञ्चा नगरी गया ॥४१॥ अशनिघोष बहुरूपिणी और भ्रामरी विद्या के द्वारा अपने आपको करोड़ों रूप बना कर तथा सब ओर से आकाश को व्याप्त कर राजा श्रीविजय के साथ युद्ध कर रहा था। यह देख विद्याधरों के राजा ने अपनी विद्या से उसकी विद्या छेद दी ।।६२-६३।। जो दूसरों के लिये अवध्य था-दूसरे जिसे छेद नहीं सकते थे ऐसे विद्यास्त्र को देख कर अशनिघोष, यद्यपि दूसरों को जीतने वाला था, शूर था और अन्य शूरवीरों को भय उत्पन्न करने वाला था तो भी भयभीत हो गया ।।१४।। तदनन्तर शरीर मात्र ही जिसका शेष रह गया था और विद्यारूपी विभूति जिसकी नष्ट हो गयी थी ऐसा वह अशनिघोष ताराओं से रहित प्रातःकाल के आकाश के समान हो गया ।।१५।। अन्त में वह अपनी रक्षा करने की इच्छा से वेग पूर्वक भागा। अथवा चित्त स्वभाव से ही चञ्चल होता है फिर पापी मनुष्य का चित्त है ही कितना ? ॥६६॥ घात करने की इच्छुक तथा भयंकर रूप धारण करने वाली विद्या ने उसका पीछा किया। इसी तरह
१ बन्धाइ विमोचयतीत्येवं शीला ताम् २ प्रेषयामास ३ रक्षितु मिच्छया ।
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