Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
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श्रीशान्तिनाथपुराणम्
प्रयि स्मरसि भद्रे त्वं पुष्करार्द्धस्य भारते । नगरं नन्दनं नाम विद्यमानमनिन्दितम् ॥ ८१ ॥ | माहेन्द्रो रक्षिता तस्य " महेन्द्रप्रतिमोऽभवत् । श्रावयोश्च पिता बीरः प्रतापाक्रान्तशात्रवः ॥ ८२ ॥ | अभ्वयोजनयित्री सा जातानन्तमती सती । प्रपात तथा स्तन्यं स्वस्यंवावां प्रयत्नतः ॥ ८३॥ श्रमम्तधीरहं ज्येष्ठा तत्राभूवं त्वमप्यभूत् । धनधीरिति विख्याता माघुशस्त्वं यवीयसी ॥८४॥ अभिजानासि तं नन्दं नत्वा सिद्धगिरौ मुनिम् । प्रोषधं यद्ग्रहीष्यावः सम्यगावां प्रयत्नतः ॥ ८५ ॥ एकदा क्रीडमाने नौ विद्याधृत् त्रिपुरेश्वरः । अशोकवनिकामध्ये दृष्ट्वा वज्राङ्गबोऽहरत् ।।८६॥ योषया वज्रमालिन्या काक्ष कौक्षेयकाहतः । पतन्विहायसोऽत्याक्षीदावां स स्त्रीजितोऽन्तरा ॥८७॥ उत्पन्नानुशयो वीक्ष्य नि:पतन्त्यौ विहायसः । प्रावामन्वगृहीत्पश्चात्पलच्या स विद्यया ॥ ८८ ॥ ॥ भीमादव्यामपस्ताव तयावां विद्यया शनैः । धार्यमाणे सरस्तीरे "त्वक्सारनिकराचिते ||२६|| प्रालम्ब्य मनसा धैर्यमावां तत्रातिभीषणे । श्राहारं च शरीरं च प्रत्याख्याय सुनिश्चितम् ॥६०॥ मृत्वास्त्वं कुबेरस्य रत्ये रतिरितीरिता । प्रियाsभूवं महेन्द्रस्य नाम्ना नवमिकाप्यहम् ॥ ६१ ॥ यन्नन्दीश्वर यात्रायामन्योन्यं वीक्ष्य भाषितम् । स्वमत्र विषयासक्तचित्ता तन्मा निराकृथाः ॥६२॥
हे भद्र े ! तुझे स्मरण है- पुष्करार्द्ध द्वीप के भरतक्षेत्र में नन्दन नामका एक उत्तम नगर विद्यमान है || ८१ ॥ इन्द्रतुल्य राजा माहेन्द्र उस नगर का रक्षक था तथा प्रताप के द्वारा शत्रुओं को दबाने वाला वही धीर वीर माहेन्द्र हम दोनों का पिता था ॥ ८२॥ हम दोनों की माता सती अनन्तमती थी । उसने हम दोनों के लिये प्रयत्न पूर्वक दूध पिलाया था ||८३|| मैं वहाँ अनन्तश्री नामकी ज्येष्ठ पुत्री हुई थी और तू धनश्री नामसे प्रसिद्ध छोटी पुत्री । भूलो मत, जब तुम तरुणी हो गयी थी । स्मरण है तुम्हें हम दोनों ने सिद्धगिरि पर नन्द नामक मुनिराज को नमस्कार कर उनसे प्रयत्न पूर्वक प्रोषध व्रत लिया था ।। ८४-८५।। एक बार प्रशोकवाटिका में क्रीड़ा करती हुई हम दोनों को देख त्रिपुरा के स्वामी वज्राङ्गद विद्याधर ने हरण कर लिया ।। ८६ ।। उसकी वज्रमालिनी स्त्री ने बगल में स्थित तलवार से उस पर प्रहार किया । स्त्री से पराजित हो आकाश से गिरने लगा। उसी समय बीच में उसने हम दोनों को छोड़ दिया ॥ ८७ ॥ श्राकाश से नीचे गिरती हुई हम दोनों को देख कर उसे पश्चाताप हुआ। जिसके फलस्वरूप पर्णलघ्वी विद्या के द्वारा उसने हम लोगों को अनुगृहीत किया ।। ८८ ।। उस विद्या के द्वारा धारण की हुई हम दोनों धीरे धीरे भयंकर अटवी में बांसों के समूह से व्याप्त सरोवर के तट पर गिरी ||८|| उस अत्यन्त भयंकर वन में हम दोनों ने मन से धैर्य का आलम्बनले सुनिश्चित रूप से प्रहार और शरीर का त्याग कर सल्लेखना धारण की ॥ ६० ॥ मर कर तु कुबेर की प्रीति बढ़ाने के लिये उसकी रति नामकी प्रिया हुई और मैं महेन्द्र की नवमिका नामक वल्लभा हुई हूं ॥ ६१ ॥ नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा में परस्पर देखकर जो कुछ कहा था उसे यहाँ विषयासक्त चित्त होकर निराकृत मत करो - उसे भूल मत जाओ ||२|| इसीलिये तुझ साध्वी को संबोधित करने के लिये यहाँ आयी हूं। ठीक ही है क्योंकि स्वीकृत बात को बिना कहें कौन भाई
१ महेन्द्रतुल्यः २ दुग्धम् ३ तारुण्यवती ४ कक्षस्थितकृपारणाहतः ५ वंश वृक्षसमूह व्याप्ते ।
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